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भारत में मानवाधिकार हनन का खतरनाक ट्रेंड

human rights in indiaव्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा का सम्मान करते हुए और समाज में शांति व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से भारत सरकार द्वारा वर्ष 1990 में भारतीय सीमा के भीतर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से मानवाधिकार प्रदान करने की व्यवस्था की गई है. हालांकि संविधान द्वारा भी मनुष्यों को विभिन्न प्रकार के मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं, लेकिन उनका क्षेत्र बहुत हद तक सीमित है. जहां मौलिक अधिकारों का प्रयोग केवल नागरिक ही कर सकते हैं, वहीं मानवाधिकार भारत की शासकीय सीमा में रहने वाले सभी व्यक्तियों, चाहे वे भारत के नागरिक हों या ना हों, पर समान रूप से लागू होते हैं. भले ही शहरी क्षेत्रों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के चलते व्यक्ति बहुत हद तक अपने अधिकारों के विषय में जागरुक रहने लगे हों, लेकिन ग्रामीण इलाकों में आज भी यह परिस्थितियां विकसित नहीं हो सकी हैं. व्यक्तिगत जीवन के लिए मानवाधिकार की महत्ता को समझते हुए भारत सरकार द्वारा 12 अक्टूबर, 1993 में मानवाधिकार आयोग नामक एक स्वायत्त संस्था का गठन किया गया, जो मनुष्य को उपलब्ध मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए कार्य करती है. इस संस्था का मुख्य दायित्व भारत में निवास कर रहे सभी मनुष्यों की हितों की रक्षा करना और उनके विकास में आने वाली बाधाओं, चाहे वे राजनैतिक हो या फिर सामाजिक, के विरुद्ध आवाज बुलंद करना है.


मानवाधिकारों का सकारात्मक पक्ष

भारतीय शासन प्रणाली लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के अनुसार कार्य करती है. यहां सरकार जनता की भलाई के लिए कानून और योजनाएं बनाती है. लेकिन हर बार ऐसा ही हो, यह आवश्यक नहीं है. कई बार ऐसी परिस्थितियां देखी जा सकती है, जब सरकार स्वयं ही किसी दबाव या अन्य किसी कारण से व्यक्तियों की स्वतंत्रता और उसके सम्मान को आहत करती है तो ऐसे हालातों में मानवाधिकार आयोग की शरण में जाने से व्यक्ति अपने उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठा सकता है. उल्लेखनीय है कि मानवाधिकार का हनन होने पर कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र रूप से इसके विरुद्ध खड़ा हो सकता है. उसे किसी संस्था या समुदाय से जुड़े रहने की आवश्यकता नहीं है.


मानवाधिकार के अंतर्गत व्यक्तियों को निम्नलिखित अधिकार प्रदान करने की व्यवस्था है, जिनके उपलब्ध ना होने पर मानवाधिकार हनन का मामला दर्ज किया जा सकता है: समान शिक्षा, स्वच्छ पानी और आवास की सुविधा, निर्धन और पिछड़े वर्गों को भूमि और सुरक्षा का अधिकार, महिला और बच्चों के उचित स्वास्थ्य को प्राथमिकता, सभी क्षेत्रों में महिलाओं को समान अधिकार, कल्याणकारी राज्य व्यवस्था के अंतर्गत मनुष्यों को समान रूप से नागरिक और राजनैतिक अधिकार की व्यवस्था. हालांकि हमारे समाज में सभी वर्गों और धर्मों से जुड़े लोगों को समान राजनैतिक अधिकार प्रदान किये गए हैं. लेकिन जमीनी स्तर पर दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों पर अत्याचार होना कोई हैरान कर देने वाली बात नहीं है. शहरी क्षेत्रों में स्थिति कुछ हद तक परिवर्तित जरूर हुई है, लेकिन ग्रामों में महिलाओं और दलितों की स्थिति जस की तस है. ऐसे हालातों में मानवाधिकार बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं. लेकिन इनका उपयोग भी तभी संभव है जब इनकी जानकारी हो. इसीलिए मानवाधिकार आयोग इन सभी अधिकारों की सुरक्षा और प्रसार का काम करता है.


मानवाधिकारों के विषय में कुछ नकारात्मक तथ्य

मानवाधिकारों के समर्थक उन सभी गतिविधियों के विरोधी हैं, जो मनुष्य की स्वतंत्रता पर आघात करती है. उन्हें समाज से नहीं व्यक्तिगत जीवन से सरोकार होता है. उनका मत है कि जब तक शासन और सामाजिक व्यवस्था द्वारा व्यक्तियों के जीवन में निरंतर दखल दिया जाता रहेगा तब तक व्यक्ति स्वतंत्र रूप से अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं कर सकता. समाज में या तो व्यवस्था रह सकती है या फिर मानवाधिकार. जबकि यह अधिकार व्यक्ति को उन्नति और विकास का अवसर देता है, इसीलिए इनकी विलुप्तता किसी भी समाज के लिए हितकर साबित नहीं हो सकती. मानवाधिकार के समर्थक व्यक्तियों की प्राकृतिक स्वतंत्रता की पैरवी करते हैं. उनका कहना है कि प्रकृति ने मनुष्यों को स्वतंत्र विचरण करने वाले प्राणी के रूप में जन्म दिया है. उन पर किसी भी प्रकार की बंदिश सही नहीं है. इसीलिए उनके जीवन और उनकी स्वतंत्रता को सीमित करना उनके प्राकृतिक अधिकारों के विरुद्ध है.


human rightsभारत में मानवाधिकारों के हनन से जुड़े कुछ मुख्य विवाद

हालांकि भारतीय सीमा के अंदर रहने वाले सभी व्यक्तियों को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से मानवाधिकार प्रदान किये गए हैं. लेकिन कई बार यही समानता का अधिकार सामाजिक और नैतिक रूप से खोखला साबित हो जाता है. मानवाधिकारों के हनन से जुड़े कुछ मुख्य विवाद निम्नलिखित हैं:


  • सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम – निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता मानवाधिकार की पहली शर्त है. लेकिन भारत के पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू-कश्मीर में लागू यह अधिनियम इस शर्त पर खरा नहीं उतरता. इस अधिनियम के कारण सेना को असीमित अधिकार प्राप्त हो जाते हैं. सुरक्षा की दृष्टि से वह जब चाहे, जिसे चाहे हिरासत में ले सकती है, घर में घुस सकती हैं, किसी के खिलाफ वारंट जारी कर सकती हैं. यह पूर्ण रूप से मानवाधिकारों का हनन है. उन्हें अपने व्यक्तिगत चीजों को गुप्त रखने तक की स्वतंत्रता नहीं है. हालांकि इन सभी राज्यों में आतंक का खतरा हर समय मंडराता रहता है, जिसकी वजह से सेना को अधिकार जरूरी है, लेकिन कई बार सेना के जवान इन अधिकारों की आड़ में कई अनैतिक गतिविधियों को अंजाम दे देते हैं.
  • समलैंगिकता –वर्षों से हमारे समाज में समलैंगिकता विद्यमान रही है. लेकिन वर्ष 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता और संरक्षण प्रदान कर एक नई बहस छेड़ दी है. इससे पहले यह सब गुप्त रूप से हुआ करता था, लेकिन अब समलैंगिक खुले तौर पर अपने अधिकारों की मांग करने लगे हैं. भले ही यह उनके मानवाधिकारों के दायरे में हो, लेकिन समाज के लिए किसी भी रूप में हितकारी नहीं है.
  • नक्सल गतिविधियां – मानवाधिकारों के समर्थक तो नक्सलियों को भी इन अधिकारों के क्षेत्र में रखने की मांग करने लगे हैं. उनका तर्क है कि उनके भी हित हैं, जिनका हनन करना मानवाधिकारों के विरुद्ध है.
  • मृत्युदंड की समाप्ति – ना जाने कितने निर्दोषों का जीवन छीन चुके अपराधी, जिन्हें फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है, मानवाधिकार समर्थक उनकी सजा को माफ करने और मृत्युदंड जैसी सजा को भी समाप्त करने की पैरवी करते हैं. उनका तर्क है कि मृत्युदंड देकर उनके जीवन को समाप्त कर देना अमानवीय है.

भले ही मानवाधिकारों के समर्थक सभी परिस्थितियों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता को महत्व दें, लेकिन यह किसी भी रूप में संभव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कई बार यही स्वतंत्रता समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती है. हालांकि सही दिशा में मानाधिकारों का प्रयोग व्यक्तियों को सम्मानजनक परिस्थितियां उपलब्ध करवा सकता है, लेकिन अकसर इन्हें गलत तरीके से ही प्रयोग में लाया जाता है. अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्य भावना का होना बहुत आवश्यक है.


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