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शिक्षा पीएचडी, फिर भी सड़क पर बेचता है चनें

जब पिता एस. सुब्रमण्यम को खराब स्वास्थ के कारण सेल्समैन की नौकरी छोड़नी पड़ी तब एस. श्रवणकुमार और उनके भाई एस. पलानीराज को अपनी पढ़ाई और परिवार का पेट पालने के लिए चना बेचने पर मजबूर होना पड़ा. यह 1999 की बात है.


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आज श्रवणकुमार के पास एमए, एमफिल, और बीएड की डिग्री है और वे सरकारी स्कूल में एक शिक्षक के तौर पर नियुक्त हो गए हैं. वहीं पलानीराज जो कि आज भी चने बेचने का काम करते हैं, पॉन्डीचेरी विश्वविद्यालय से तमिल भाषा में पीएचडी कर रहे हैं. पीएचडी स्कॉलर के रूप में उन्हें सन 2010 से 8000 रुपए महीना वजीफा मिलता था और अब जुनियर रिसर्च फेलोशिप पूरा कर लेने के बाद उन्हें जल्द ही 16000 रुपए महीना वजीफा के तौर पर मिलेगा, पर फिलहाल पलानीराज चना बेचने का अपना काम जारी रखना चाहते हैं.


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पलानीराज कहते हैं कि, “हमने अपनी तीनों बहनों की शादी के दौरान बहुत बड़ा लोन लिया था जिसे भरना है. मेरे भाई की तनख्वाह और मेरी आमदनी का अधिकांश हिस्सा लोन का इंस्टॉलमेंट चुकाने में खर्च हो जाता है. और फिर मैं चना बेचना क्यों छोड़ूं? मैं मानता हूं कि अगर कोई व्यक्ति अपनी पसंद से कोई व्यवसाय शुरू करता है तो उस जारी रखना उसकी सामाजिक जिम्मेदारी है.”


अन्य रिसर्च स्कॉलरों से अलग पलानीराज अपने खाली समय का बड़ा हिस्सा चना, तेल, आटा और अन्य मसाला खरीदने में बीताते हैं. “घर में जिसके पास भी समय होता है वह चना तैयार कर देता है.” पलानीराज बताते हैं कि “जब कभी मैं जल्दी घर पहुंच जाता हूं तब मैं खुद ही चना तैयार करता हूं. शाम 5:30 तक मैं बीच रोड पर चना बेचने निकल जाता हूं और रात 11 बजे तक घर लौटता हूं.” पलानीराज रोज के तकरीबन 200 रूपए कमाते हैं.


तमिल में बीए करने के बाद पलानीराज ने पॉन्डीचेरी विश्वविद्यालय में एमए में दाखिला लिया. यहां से एमफिल करने के बाद उन्होंने सन 2010 में पीएचडी प्रोग्राम में नामंकन करवाया. पलानीराज 12 अलवरों के सित्रीलाक्यम पर रिसर्च कर रहें हैं. अलवर 6वीं से 12वीं सदी के वैष्णव संप्रदाय के संत थे. सित्रीलाक्यम अलवरों की रचना है.


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टीवी और इंटरनेट के युग में जब अधिकांश छात्र समय की कमी की दुहाई देते हैं ऐसे में चना बेचते हुए पीएचडी कर लेने की पलानीराज का उदाहरण काबिल-ए-तारीफ है. Next..


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