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केवल अपने हित को सोचते युवा [बाजारीकरण के दौर का अभिशाप]

youths प्राचीन काल से ही भारत अपनी स्वाधीनता व स्वत्व के लिए संघर्ष करता आया है. निरंतर होते बाहरी आक्रमण और औपनिवेशिक हालातों ने भारतीय लोगों को ना तो आर्थिक रूप से और ना ही सामाजिक रूप से फलने-फूलने दिया. लेकिन ऐसी दयनीय और असामान्य परिस्थितियों ने पारस्परिक रिश्तों को बेहद मजबूत बना दिया था. अपने हितों की पूर्ति करने के बजाए व्यक्ति सामुदायिक हितों को महत्व देता था. जिसका मूल कारण आय के स्त्रोतों का सीमित और शोषित होना था. परिणामस्वरूप पारिवारिक जीवन के साथ साथ सामाजिक जीवन यापन भी परस्पर निर्भरता पर ही आश्रित था. गुलाम भारत के अमानवीय हालातों ने सबसे ज्यादा युवाओं को प्रभावित किया क्योंकि यह वह काल था जब व्यक्ति दूसरे पर हो रहे शोषण को अपना दर्द समझता था और उनके हितों को अपने हित से जोड़ कर देखता था. इसी अपनेपन और दिनोंदिन बदतर होती प्रतिकूल परिस्थितियों ने, खासतौर पर युवाओं के भीतर गुलामी की जंजीरें तोड़ फेंकने और देश को स्वराज दिलवाने की भावना का विकास किया.


स्वतंत्रता के कई वर्षों बाद तक भी लोगों के आर्थिक-सामाजिक जीवन में कोई सुधार नहीं हुआ था, जिसका मुख्य कारण भारत की अर्थव्यवस्था का कृषि पर आधारित होना था. लेकिन अब हालात पहले की अपेक्षा काफी हद तक परिवर्तित हुए हैं. पहले जहां आय के सभी स्त्रोतों पर ब्रिटिश सरकार का अधिकार था वहीं आजादी के बाद मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया. इसमें सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के अधिकार क्षेत्र निर्धारित कर दिए गए. इसके अलावा प्रगतिशील भारत में उदारीकरण और वैश्वीकरण जैसी नीतियों का आगमन हुआ. इन सब आर्थिक व्यवस्थाओं ने भारत के लोगों को आर्थिक रूप से अधिक सशक्त बनाया साथ ही उनके जीवन स्तर को बेहद महत्वपूर्ण ढंग से परिमार्जित किया.


लेकिन किसी भी प्रकार के बदलाव को केवल एक ही दृष्टिकोण से देखा जाना न्यायसंगत नहीं होता. अगर संबंधित बदलाव, समाज पर उसके प्रभावों और वास्तविक हालातों का विश्लेषण करना हो तो सिक्के के दूसरे पहलू पर गौर करना भी जरूरी हो जाता है.


पहले के हालातों और वर्तमान हालातों पर अगर ध्यान दिया जाए तो भले ही इन आर्थिक नीतियों ने मनुष्य को जीने का एक नया आयाम दिया हो और उसके भौतिक जीवन को नई उंचाई प्रदान की हो लेकिन इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि इन्ही उंचाइयों ने उसके नैतिक और पारिवारिक मूल्यों को गिरा दिया है.


युवाओं के संदर्भ में अगर बात की जाए तो युवा शक्ति ही भारत जैसे प्रगतिशील राष्ट्र के भविष्य की नींव है. युवाओं के मजबूत कंधों पर ही देश के उज्जवल भविष्य का भार होने के साथ-साथ वर्तमान परिस्थितियों को भी समाज के लिए अनुकूल और सौहार्दपूर्ण बनाए रखने की जिम्मेदारी है. युवाओं की प्रगति को राष्ट्र की प्रगति के साथ जोड़ कर देखा जाता है. भले ही नई आर्थिक नीतियों ने युवाओं को खुद को साबित करने और आर्थिक रूप से सशक्त होने के लिए कई मौके दिए हों, लेकिन इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि पैसे की चकाचौंध और अवसरों की भरमार ने भविष्य की इस नींव को कमजोर बना दिया है.


अब युवा पूरी तरह आत्मकेन्द्रित हो अपने उद्देश्य और अपनी जिम्मेदारियों से भटक रहे हैं. सामुदायिक हितों की बात तो छोड़िए अपने हितों के आगे वे अपने परिवार को भी महत्व नहीं देते. आज के भौतिकवादी युग में उनकी मानसिकता भी भौतिकवाद से ग्रस्त हो चुकी है. बाजारीकरण ने उन्हें रिश्तों का मोल-भाव करना भी सिखा दिया है. इसके अलावा वे परिवार और दोस्तों को केवल अपने हितपूर्ति का साधन समझ उनका उपयोग करना भी भलीभांति सीख गए हैं. भागती-दौड़ती जीवन शैली और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में वे अपने संबंधों और अपने जीवन में उनके महत्व को भी भूलते जा रहे हैं.


माता-पिता अपने बच्चों की अच्छी परवरिश, उनकी उचित पढ़ाई को ही अपना लक्ष्य मानकर अपनी सभी व्यक्तिगत खुशियों को त्याग देते हैं. वे अपना जीवन पूर्ण रूप से अपने बच्चे के उज्जवल भविष्य के लिए समर्पित कर देते हैं. उन्हें इस बात का अंदाजा भी नहीं होता कि जिन बच्चों के लिए वे अपना सब कुछ त्याग चुके हैं वही बच्चे एक अच्छे ओहदे पर पहुंचने के बाद उनके प्रति अपने दायित्व बोध के निर्वहन में अक्षम साबित होंगे. आज के युवा का लक्ष्य केवल एक सफल व्यवसायी बनकर अधिक से अधिक धन कमाना रह गया है और वे इस उद्देश्य के आगे किसी की भी भावनाओं को ठेस पहुंचाने को बुरा नहीं मानते. अपने सफल भविष्य की कामना करते हुए वह अपने माता-पिता की खुशियां और उनके बलिदानों को पीछे भूल जाता है.


बाजारीकरण ने संबंधों को एक वस्तु बना कर रख दिया है, जिनका उपयोग केवल जरूरत पड़ने पर ही किया जाता है. किसी भी संबंध का निर्वाह केवल तब तक ही किया जाता है, जब तक वह अपने अनुसार चले. पैसा कमाने की अंधी दौड़ ने व्यक्ति को पारस्परिक सुख-दुख से कोसों दूर कर दिया है. पारिवारिक हित अब कोई मायने नहीं रखते. दिनोंदिन संकुचित होती और स्वयं तक केन्द्रित होती मानसिकता ने संबंधों के टूटने में अपना अहम योगदान दिया है.


आजादी के पहले युवा, जो देश के लिए अपनी जान तक देने से पीछे नहीं हटे, आज अपने हितों के लिए अपनों की जान लेने या उन्हें धोखा देने में भी कोई गुरेज नहीं करते. पैसे की लालसा ने उन्हें स्वार्थी बनाने के साथ-साथ भावना विहीन बना दिया है. संवेदशीलता तो जैसे पुरानी बात हो गई है.


यहां एक बात और विचारयोग्य है कि युवाओं के भीतर उपज रहे इस स्वार्थ और संकीर्णता के भाव का दोष केवल उन्हीं के सिर नहीं मढ़ा जा सकता. इसके लिए समाज और उसकी मानसिकता भी समान रूप से दोषी है. क्योंकि यहां सम्मान भी उसी व्यक्ति को दिया जाता है, जो आर्थिक रूप से सशक्त और सक्षम हो. अब ऐसे वातावरण में अगर कोई व्यक्ति धन को अधिक महत्व देता है तो उसे अकेले दोषी नहीं ठहराया जा सकता. वहीं दूसरी ओर माता-पिता भी अपने बच्चे के ऐसे व्यवहार के लिए समान रूप से उत्तरदायी होते हैं. बचपन से ही उसे इस उद्देश्य के साथ बड़ा किया जाता है कि वह काबिल होकर समाज में उनके लिए सम्मानजनक स्थान बनाएगा और उनकी आर्थिक दिक्कतों को कम करेगा.


कारण चाहे जो भी हो, व्यक्ति को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि उसके हित से कहीं ज्यादा जरूरी उसके अपनों की खुशी है. उसे उन लोगों के हितों की ओर भी ध्यान देना चाहिए जिन लोगों ने उसे इस काबिल बनाया कि वह स्वतंत्र होकर निर्णय ले सकें. अकेले चलकर मुकाम जरूर पाया जा सकता हैं. लेकिन उस मुकाम पर अकेले रह पाना बहुत कठिन हो जाता है. भले ही बाजारीकरण और भौतिकवाद की अधिकता ने मनुष्य को खुद तक सीमित कर दिया हो, लेकिन मूल रूप से वह एक सामाजिक प्राणी है जो अपने संबंधियों और करीबी व्यक्तियों की मौजूदगी के बिना अपने जीवन के मूलभूत उद्देश्यों को नहीं प्राप्त कर सकता है.


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