Menu
blogid : 316 postid : 572298

इस अभिशाप से मुक्ति की याचना है

disabilityविकलांगता किसी अभिशाप से कम नहीं. प्रकृति ने विकलांगता का दोष जिस किसी को दिया वह सभी उससे इसकी वजह पूछते हैं. कुछ के लिए यह भगवान की नाइंसाफी है तो कुछ के लिए पिछले जन्म का पाप. लेकिन विकलांगता के दुख को समझ पाना कतई मुमकिन नहीं है. थोडी देर के लिए ही सही अपने एक पांव को बांधकर कुछ देर चल कर देखें या एक हाथ से दिन भर काम करें, शायद ऐसा करने से भी आपको उनके कष्टों का मात्र एक प्रतिशत ही अनुभव होगा. विकलांगता को मुख्यत: दो भागों में बांटा गया है. पहला शारीरिक और दूसरा मानसिक. लेकिन विकलांगता चाहे जो भी हो वह जीवन को अत्यंत दुश्वार बना देती है. पर इससे दर्दनाक है समाज का इन लोगों से अछूतों सा व्यवहार.


विकलांगता

शरीर में किसी तरह की अपंगता या किसी भाग का सामान्य से अलग होना अथवा कार्य न करना शारीरिक विकलांगता को दर्शाता है. बहरापन, गूंगापन, अंधापन, लंगड़ाना आदि कुछ ऐसी विकृतियां हैं जिनसे मनुष्य को सामान्य जीवन जीने में परेशानी होती है. लेकिन यह तो फिर भी सह लिए जाते हैं परंतु दर्द तब और बढ़ जाता है जब शरीर का कोई अंग न हो जैसे एक हाथ या पैर का न होना.

Read: ऐसे तो इंटरनेट ‘वरदान’ से ‘अभिशाप’ बन जाएगा


मानसिक विकलांगता

विकलांगता की सबसे दुखदायक स्थिति होती है मानसिक तौर से पूरी तरह विकास न हो पाना. इस समस्या से पीड़ित लोग समाज में दया और स्नेह के पात्र होते हैं लेकिन यह कठोर समाज इन्हें अछूत मानता है. शारीरिक तौर से किसी भी तरह की कमी को शारीरिक विकलांगता का नाम दिया जा सकता हैं. यह आम तौर पर दो तरह की होती है पहला जन्मजात और दूसरा किसी दुर्घटना आदि की वजह से.


मां-बाप की देखभाल में कमी

भारत में जन्मजात विकलांगता की सबसे बड़ी वजह है मां बाप का गर्भकाल के दौरान सही से ध्यान न देना, पोषण में कमी आदि.

Read: Funny Jokes in Hindi: काली-काली रातों से


विकलांगों का समाज में स्थान

समाज का विकलांगों के प्रति कठोर और स्नेहहीन रवैया दुखदाई है. लंगड़ा, बहरा, अंधा, पगला आदि शब्द उनके प्रति उपेक्षा दर्शाते हैं. हमारे घर में कोई विकलांग है तो हम उसे समाज की नजरों से बचा कर रखना चाहते हैं – कौन उपेक्षा झेले.. या यह सोचते हैं कि उस विकलांग को प्रत्यक्ष/परोक्ष ताने मिलेंगे, इससे अच्छा तो होगा कि उसे समाज की नजरों से बचा कर रखा जाए. आज भी समाज की नजर में विकलांगता जैविक या जन्मजात विकृति, एक अभिशाप है. जबकि यह रोग या अभिशाप नहीं बल्कि एक स्थिति है जो कि सामाजिक पूर्वाग्रह और तरह-तरह की बाधाओं के कारण और जटिल बन चुकी है. पुरूष तो किसी तरह अपने हिस्से की जिन्दगी जी लेते हैं मगर महिलाओं के लिए जिंदगी बद से बदतर बन जाती है. क्योंकि उसके लिए तो बंधन है, मर्यादाओं की एक दहलीज है. दहलीज के बाहर निकलने में एतराज है. दहलीज के भीतर रहने में समस्याएं हैं.

Read: शोषण की एक नजर ऐसी भी है


सरकार क्या कर रही है

सरकार हमेशा से ही समाज के हर वर्ग को आगे लाने और सुधारने के लिए प्रयत्नशील रहती है.  कई बार ये नीतियां नौकरशाही और भ्रष्ट नेताओं के चंगुल में फंसकर बस फाइलों और किताबों तक ही सीमित  रह जाते हैं.  हालांकि यह संपूर्ण सत्य नहीं है. सरकार अगर नीतियां बनाती है तो अपने लिए नहीं बनाती. सरकार ने शुरु से ही विकलांगो के लिए कई कार्यक्रम चला रखे हैं जो समाज के असहयोग की वजह से सफल नहीं हो सके. विकलांग लोगों के लिए सरकार का रवैया सकारात्मक रहा है. विकलांग व्यक्तिअधिनियम, 1995 (समान अवसर, अधिकारों की रक्षा और पूर्ण सहभागिता) को लागू करना, विकलांगों के लिए राष्ट्रीय नीति (2006) का निर्माण तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की विकलांगों के लिए अधिकार सभा का घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर(2007 में ) जैसे कुछ कदम अलग तरह से असक्षम इन लोगों को समाज में सम्मान और आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सरकार द्वारा उठाए जा चुके हैं.


सरकार ने विकलांग व्यक्ति अधिनियम में व्यापक परिवर्तन भी किए ताकि इसे और अधिक व्यापक और अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अनुरूप बनाया जा सके. सरकार विकलांग व्यक्तियों को सहायक उपकरण, छात्रवृत्तियों, पुरस्कार और आर्थिक सहायता और शासकीय नौकरियों में आरक्षण की सुविधा प्रदान कर रही है. वहीं निजी क्षेत्रों में विकलांग लोगों के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने हेतु उन्हें अवसर उपलब्ध कराने वाले नियोक्ताओं को प्रोत्साहित करने जैसी अनेक योजनाओं के माध्यम से सरकार विकलांग कल्याण के कामों में लगी हुई है. इन सारे प्रयासों का मुख्य लक्ष्य उनकी शारीरिक बाधाओं द्वारा उन पर लगे प्रतिबंध को दूर कर, आत्मविश्वास जगाकर आत्मनिर्भर बनाना तथा सामान्य जीवन जीने का उनमें हौसला पैदा करना है.


साथ ही उच्चतम न्यायलय ने सभी राज्यों को यह आदेश दिया है कि वह सभी रोजगारों में तीन फीसदी की हिस्सेदारी विकलांगो के लिए करनी ही होगी.


महत्वपूर्ण अधिनियम

विकलांग व्यक्ति अधिनियम, 1995 के अन्तर्गत विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को सुनिश्चित किया गया है जो निम्न हैं:


-विकलांगों को भी सामान्य लोगों की तरह अधिकार और कानूनी अधिकार सुनिश्चित करना ताकि वह भी सामान्य लोगों की तरह जी सकें. साथ ही अधिनियम ने यह निश्चित किया है कि सरकारों का काम होगा कि वह राज्य में विकलांगो के पुनर्निवास और उनकी देखभाल पर ध्यान दे. केन्द्रीय और राज्य सरकारों का यह कर्त्तव्य होगा कि वे रोकथाम संबंधी उपाय करें ताकि विकलांगताओं को रोका जा सके और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर कर्मचारियों को प्रशिक्षित किया जाए जिससे स्वास्थ्य और सफाई संबंधी सेवाओं में सुधार हो सके. साथ ही बच्चों के लिए 18 वर्ष की आयु तक उपयुक्त वातावरण में निःशुल्क शिक्षा का अधिकार दिया जाएगा .

-विकलांगों के लिए अलग से स्कूल खोले जाएंगे और व्यवसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाएगा. सरकारों को विकलांगो की शिक्षा पर विशेष ध्यान देना होगा. इसके साथ ही रोजगार में दृष्टिहीनता, श्रवण विकलांग और प्रमस्तिष्क अंगघात से ग्रस्त विकलांगों की प्रत्येक श्रेणी के लिए तीन फीसदी आरक्षण करना होगा . साथ ही सामाजिक स्तर पर विकलांग व्यक्तियों के साथ परिवहन सुविधाओं, सड़क पर यातायात के संकेतों या निर्मित वातावरण में कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा . सरकार ने विकलांग व्यक्तियों या गंभीर विकलांगता से ग्रस्त व्यक्तियों के संस्थानों की मान्यता निर्धारित करने का काम भी किया है.

-राष्ट्रीय न्यास अधिनियम, 1999 भी विकलांगों के लिए कुछ ऐसे ही नियम और कानूनों को संरक्षित करता है. लेकिन भारतीय पुनर्वास अधिनियम, 1992 के अंतर्गत विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों के साथ उनके पुनर्वास और शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया गया हैं.


मानसिक विकलांगों के अधिकार

मानसिक रुप से मंद व्यक्तियों को मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 के अंतर्गत कई अधिकार प्राप्त हैं. जैसे कोई भी मानसिक विकलांग अपना इलाज किसी भी सरकारी या निजी संस्थान में अपना इलाज करा सकता है. साधारण लोगों के अलावा यह अधिनियम कैदियों को भी यही रियायत प्रदान करता है. साथ ही पुलिस को यह दायित्व दिया गया है कि वह ऐसे लोगों की सुरक्षा का ध्यान रखें. साथ ही जो अधिकार सबसे अजब है वह है कि ऐसे रोगी कभी भी अस्पताल से छुट्टी ले सकते हैं. एक अहम अधिकार यह भी है कि यदि मानसिक रोगी अपनी जायदाद या संपत्ति को संभाल न पा रहा हो तो उसे जिला न्यायालय द्वारा सपंति की सुरक्षा प्रदान होगी.


हालांकि अधिकारों और नियमों के बावजूद इनके सामाजिक स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं हो सका. और न ही सरकार विकलांगता की रोकथाम में अधिक कुशल हो सकी है. यहां एक बात गौर करने वाली है कि पोलियो जैसे रोग भारत में काफी कम हो चुके हैं जो एक राहत की बात जरुर है लेकिन वह भी अभी पूरी तरह खत्म नही हो सके हैं. गलती सरकार की है या आम जनता की यह कह पाना मुश्किल है.


गैर सरकारी कार्य भी सराहनीय हैं

समाज में जो काम सरकारी अफसरों की पहुंच से दूर लगता है उसी काम को गैर-सरकारी संस्थानों ने शुरु से ही बड़ी आसानी से किया है. फिर चाहे वह किसी नदी-नाले की सफाई का हो या विकलांग-वेश्याओं और छोटे बच्चों की स्थिति सुधारने का काम. हर जगह ऐसे गैर सरकारी संस्थानों ने अपनी काबीलियत दिखाई है. लेकिन उनके माथे अपनी चांदी बटोरने का ठीकरा भी फूटा है. कुछ संस्थान जैसे आशा किरण, आंचल, आलम, आश्रय अधिकार आवास, अमर ज्योति अनुसंधान और पुनर्वास केन्द्र आदि ने सराहनीय कार्य किए हैं.


सामाजिक जिम्मेदारी

एक नागरिक होने के नाते यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम उनकी जरूरतों को समझें, उनकी बाधाओं (शारीरिक और मानसिक) जो कि उन्हें आम जीवन जीने से रोकती है, को दूर करने का प्रयास करें और अगर यह संभव न हो तो कम से कम उन्हें चैन से जीने ही दें. विकलांगता का शिकार कोई भी हो सकता है इसलिए इन्हें घृणा का पात्र न मानें बल्कि स्नेह दें. उन्हें भी सम्मान से जीने का हक है. उन्हें एक सम्मानित नजर से देखकर, उनके प्रति बिना किसी भेदभाव के सम्मानित व्यवहार कर हम उन्हें यह सम्मानित जिंदगी दे सकते हैं. उनकी विकलांगता से ज्यादा समाज की उनके लिए नजर उनका अभिशाप बन जाता है. उनके प्रति अपना रवैया बदलकर उन्हें इस अभिशापित जीवन के दर्द से मुक्त कर सकते हैं.

खूबी कुछ इस तरह खामी बनती चली गई

सरोगेसी की आंच में तपती ममता


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh