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[Disintegration of Joint Families] विघटित होता संयुक्त परिवार

joint familyपरिवार एक ऐसी संस्था है जो किसी व्यक्ति के सामाजिक और मानसिक विकास में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. ये कहना गलत नहीं होगा कि व्यक्ति की मौलिक पहचान उसके परिवार में ही निहित होती है. भारत (India)  के संदर्भ में अगर बात की जाए, तो ये वह राष्ट्र है, जहां हमेशा से ही मूल्यों (Values) और भावनाओं का वृहद महत्व रहा है. जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां आपसी रिश्तों (Mutual Relationship) की उपयोगिता को कम आंका जा सके. बच्चे के पैदा होने से लेकर, उसकी शिक्षा-दीक्षा, विवाह आदि सभी कार्यक्रमों में परिवार और संबंधियों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रहती है.


लेकिन जैसे-जैसे समय बदलता है, परिस्थितियां भी अपना रुख दूसरी ओर मोड़ लेती हैं. एक समय था जब अपने परिवार को अपनी पहचान और पारिवारिक सदस्यों (Family Members) को अपनी ज़िम्मेदारी समझने वालों की कोई कमी नहीं थी. लोग एक-दूसरे की खुशी के लिए ही जीते थे, लोगों की प्राथमिकताएं (Priorities) आज की अपेक्षा बिल्कुल अलग थीं. कृषि की प्रधानता के कारण अधिकतर लोग परिवार समेत खेती में ही संलग्न रहते थे और लाभ का उचित बंटवारा किसी भी तरह के मनमुटाव को पैदा होने नहीं देता था. परिणामस्वरूप परिवार के सभी सदस्य एक ही छत के नीचे प्रेम-भाव के साथ रहते हुए, हर सुख-दुख को साझा कर लेते थे. लेकिन वर्तमान स्थिति पहले की अपेक्षा बिल्कुल अलग है.


वैश्वीकरण (Globalisation) और उदारीकरण (Liberalisation) जैसी नीतियों ने भारतीय समाज को पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया है. एक ओर तो इनके आने से आर्थिक उन्नति की संभावनाएं बढ़ गई हैं, क्योंकि इन नीतियों ने व्यक्ति को ऐसे अनेक मौके प्रदान किए हैं, जिनके उचित उपयोग से वह खुद को दूसरों से बेहतर साबित कर सकता है. इसके अलावा शिक्षा के क्षेत्र में भी नए-नए आयामों को स्थापित किया गया है. अब केवल भारत में ही नहीं, अगर व्यक्ति चाहे तो वह अपने व्यवसाय (Professional)  और शिक्षा के बेहतर विकल्पों (Options) की तलाश में किसी भी देश में जा सकता है. वहीं दूसरी ओर इन नीतियों की वजह से भारत में एक ऐसे आर्थिक परिवेश का निर्माण हुआ है, जो निश्चित तौर पर व्यक्तिगत हितों की पूर्ति के लिए तो लाभकारी है, लेकिन हम इस बात को नकार नहीं सकते कि आज जो आपसी रिश्तों और परिवारों के महत्व के कमी आई है वह इन नीतियों का ही परिणाम है. संयुक्त परिवार (Joint Families) जो कभी भारतीय समाज की पहचान हुआ करते थे, आज ऐसे हालात आ गए हैं कि इनकी अवधारणा ही पूरी तरह समाप्त हो चुकी है.


बदलती आर्थिक परिस्थितियों में व्यक्ति परिवार के महत्व और उसकी उपयोगिता को भूल केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि पर ध्यान केंद्रित किए हुए है. दोष शायद उसका भी नहीं है, अवसरों (Opportunities) की भरमार ने उसे स्वार्थी बना दिया है. आज वह केवल व्यक्तिगत (Individual)  हितों और अपनी आकांक्षाओं को ही महत्व देने लगा है. व्यक्ति चाहे कोई भी हो, अपने लिए कोई लक्ष्य निर्धारित जरूर करता है, और उसे पाने का बस एक मौका ढूंढ़ता है. और आज तो उसके पास ऐसे अनगिनत मौके हैं जो उसे निर्धारित उद्देश्यों (Objectives) तक पहुंचा सकते हैं. आज शिक्षा या व्यवसाय का कोई भी क्षेत्र व्यक्ति की पहुंच से दूर नहीं बचा, और इसी वजह से व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं (Individual Desire)  का कद दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. बड़ी उंचाई तक पहुंचने के लिए व्यक्ति उन रिश्तों को पीछे छोड़ देता हैं जिनके सहारे उसने अपनी पूरा बचपन व्यतीत किया था.


बड़े-बड़े परिवारों की बात छोड़ भी दी जाए, तो माता-पिता का साथ भी मनुष्य को रास नहीं आ रहा. वह उन लोगों के महत्व को ही नकारने लगा है जिन्होंने उसे इस काबिल बनाया कि वह स्वतंत्र होकर निर्णय ले सकें. वह अपने कल को बेहतर बनाने के लिए उनसे दूर जाने से भी नहीं हिचकिचाता. इसी मानसिकता (Mentality)  का ही परिणाम है कि पाश्चात्य देशों (Western Countries) की तर्ज पर भारत में भी एकल परिवारों (Nuclear Families) की प्रधानता बढ़ गई है. गांवों की अपेक्षा शहरों में संयुक्त परिवारों के विलुप्त होने की प्रवृत्ति इसीलिए अधिक है क्योंकि ग्रामीण जीवन (Village Life) आज भी साधारण और कृषि प्रधान है, जिस वजह से लोगों की आकांक्षाएं भी सीमित हैं. वह अपने परिवार के महत्व को समझते हैं. उनकी आर्थिक स्थिति इतनी सशक्त नहीं होती कि वह अपने परिवार से अलग हो सकें, घर के लोग जो भी कमाते हैं, सब मिल-बांट कर खाते हैं. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि परिवार के सदस्यों की संख्या कितनी है. सीमित धन और आय के स्त्रोतों की कमी की वजह से उनका पूरा जीवन परिवार का पेट भरने की जुगत में ही बीत जाता है.


लेकिन शहरी हालात पूरी तरह से परिवर्तित और काफी अधिक जटिल हो चुके हैं. यहां लोगों के पास आय के स्त्रोतों (Sources Of Income) की कोई सीमा नहीं है. शहरों का व्यक्ति चाहे तो भारत में या फिर देश के बाहर कहीं भी आय के बेहतर अवसरों की तलाश में जा सकता है. और अधिकर यह देखा जाता है कि जहां उसे अच्छा विकल्प (Option) मिलता है, वह वहीं रह कर अपना परिवार बसा लेता है और अपने माता-पिता से दूर हो जाता है.


बढ़ती महंगाई एक और महत्वपूर्ण कारण है, जिसकी वजह से संयुक्त परिवारों (Joint Families) की महत्ता कम होती जा रही हैं. यह आम तौर पर देखा जा सकता है कि पति-पत्नी दोनों ही कमाते हैं और प्रतिस्पर्धा (Competition)  प्रधान युग में अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए हर संभव कार्य करते हैं. उन्हें अच्छे और महंगे शिक्षा संस्थानों में पढ़ाते हैं, इसके अलावा अन्य गतिविधियों में भी उन्हें पारंगत बनाने के लिए प्रयत्न करते हैं. उनका ध्यान पूरी तरह से अपना और अपने बच्चों की जरूरतों को पूरा करने पर ही केंद्रित होता है. अब ऐसे में संयुक्त परिवारों की कल्पना कर पाना भी कठिन हो जाता है. भले ही पहले के हालातों में संयुक्त परिवारों की उपयोगिता अहम थी, लेकिन शायद आज के समय में यह अवधारणा प्रासंगिक नहीं है.


आज की भागदौड़ भरी जीवन शैली (Lifestyle)  में व्यक्तियों के पास समय के अभाव के साथ-साथ सहनशक्ति की भी कमी होने लगी है, छोटी-छोटी बातें संबंध विच्छेद का कारण बन जाती हैं. आथिक तौर पर आत्म-निर्भरता में बढ़ोत्तरी आई हैं. अब ऐसा नहीं हैं कि किसी एक की आजीविका (Income) पर पूरा परिवार निर्भर करता हैं, बल्कि जितने सदस्य होते हैं, वे सभी कमाते हैं. जिस कारण अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी और के दखल को सहन नहीं करते. परिणामस्वरूप संबंधों मे खटास उत्पन्न हो जाती है. मनुष्य को कभी अपने जीवन में संबंधों के महत्व को नहीं भूलना चाहिए. परिवार चाहे संयुक्त हो या फिर एकल, आपसी प्रेम (Mutual Love)  ही मुख्य कसौटी होती है. जिसके आधार पर रिश्तों की गहराई को मापा जा सकता है. भले ही आज संयुक्त परिवार हमारे समाज से विलुप्त (Extinct) हो रहे हों लेकिन एक दूसरे के प्रति भावनात्मक लगाव (Emotional Attachment) कम नहीं होना चाहिए. साथ ही हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि आज भले ही नई आर्थिक व्यवस्था के कारण संयुक्त परिवार प्रणाली का क्षरण हुआ है लेकिन उसकी महत्ता में कोई कमी नहीं आई है. एकल परिवार में रहते हुए लोग इस बात को शिद्दत से महसूस करते नजर आते हैं.


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