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नए जमाने में बढ़ता तलाक

divorce बदलते परिवेश में महिला हो या पुरुष, दोनों में ही आर्थिक स्वावलंबन की चाह विस्तृत होने लगी है. इसके परिणामस्वरूप भले ही परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ हो, लेकिन इस बात को कतई नकारा नहीं जा सकता कि आर्थिक स्वतंत्रता की बढ़ती चाहत कई परिवारों के विघटित होने का भी कारण बनी है. जहां पहले आजीविका कमाने का क्षेत्र केवल पुरुषों तक ही सीमित था और  महिलाएं केवल घर में ही रहती थे, वहीं आज पति-पत्नी दोनों ही अपनी गृहस्थी को आर्थिक समर्थन दे रहे हैं. इस वजह से वे दोनों ही इतने व्यस्त हो चुके हैं कि उनके पास न तो एक-दूसरे के लिए ही समय बचता है और न ही अपने परिवार के लिए साथ ही दोनों की पारस्परिक निर्भरता भी कम होने लगी है. चाहे न चाहे उन्हें अपना संबंध विच्छेद करना ही पड़ता है.


यद्यपि पहले तलाक की इस अवधारणा को कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं था, जिस वजह से पति-पत्नी दोनों बेजान हो चुके अपने रिश्ते को ढोने के लिए बाध्य थे. लेकिन जबसे सरकार ने शादी के सफल नहीं होने पर तलाक लेने के अधिकार को आसान बनाने का फैसला किया है,  तबसे तलाकशुदा जोड़ों की संख्या में लगातार वृद्धि होने लगी है.


पहले केवल व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग, धर्म परिवर्तन, पागलपन, कुष्ठ रोग, छूत की बीमारी वाले यौन रोग, सन्यास तथा सात साल तक गुमशुदगी या जीवित होने की कोई खबर न होने पर ही हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत तलाक लिया जा सकता था. लेकिन अब इसे संशोधित कर सरकार ने तलाक लेने के रास्ते को और अधिक सरल बना दिया है. अब हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी व विशेष विवाह अधिनियम की धारा 28 के तहत पति-पत्नी दोनों की आपसी सहमति से तलाक की अर्जी दायर करने के बाद अगर एक पक्ष जानबूझ कर अदालती कार्यवाही से बचता है तो ऐसे में अदालत उस अर्जी पर तलाक दे सकती है. इस संशोधन का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसके बाद कोई भी पक्ष दूसरे पक्ष को बेवजह प्रताड़ित नहीं कर पाएगा.


लेकिन भारतीय समाज जो आपसी रिश्तों की अहमियत को भली-भांति समझता है, वह सरकार के इस कदम की भरपूर आलोचना कर रहा है. इसके पीछे उसका तर्क यह है कि तनाव और भौतिकवाद से ग्रसित इस आधुनिक जीवनशैली में जब लोगों की मानसिकता और उनकी प्राथमिकताएं भी तेजी से बदलने लगी हैं, ऐसे में पति-पत्नी के बीच थोड़े बहुत मनमुटाव पैदा होना लाजमी है, लेकिन इस अनबन का अर्थ यह नहीं है कि वे कानूनी रूप से तलाक लेकर अलग हो जाएं. आज भले ही दोनों आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर हैं लेकिन अगर तलाक लेने की प्रक्रिया को आसान बना दिया गया तो पश्चिमी देशों की तरह भारत में भी पारिवारिक विघटन का दौर तेज हो जाएगा.


विवाह जैसी संस्था के अस्तित्व में आने के बाद से ही पति-पत्नी के बीच समस्याएं पैदा होती रही हैं, लेकिन उस समय तलाक के किसी भी कानून की उपयोगिता कम थी क्योंकि संयुक्त परिवारों की प्रमुखता होने के कारण परिवार के बड़े-बुजुर्गों की समझदारी घर के भीतर ही विवाद को सुलझाने में सहायक होती थी. लेकिन वर्तमान सामाजिक हालातों में परिवारिक सदस्यों की संख्या केवल पति-पत्नी और बच्चों तक ही सीमित रह गई है. इस कारणवश कोई भी विवाद पति-पत्नी का आपसी मामला बन गया है. किसी भी तीसरे व्यक्ति के हस्तक्षेप को सहन नही किया जाता. अपनी इसी मानसिकता और परिवार के बड़ों के न्यूनतम हस्तक्षेप की वजह से पति-पत्नी अपने संबंध पर पूर्णविराम लगाने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हो जाते है.


divorceभले ही एक-दूसरे से अलग हो जाने से पति-पत्नी दोनों को अपनी स्वतंत्रता वापस मिल जाए, लेकिन उनके इस गलत फैसले का उनके बच्चों के मस्तिष्क और उनके भविष्य पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है. हां, ये जरूर है कि कुछ ऐसे विवाद जरूर पैदा हो जाते हैं जिन्हें सुलझाया नहीं जा सकता और पति-पत्नी का एक साथ रहना संभव नहीं हो पाता. ऐसे में तलाक का निर्णय लिए जाने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन ऐसी कोशिश होनी चाहिए कि रिश्तों में आने वाली कड़वाहट को जितना हो सके उतना दूर किया जाए, एक-दूसरे की भावनाओं को महत्व दिया जाए. ऐसी कई गैर-सरकारी संस्थाओं का गठन भी हुआ है जो शादीशुदा जीवन में आने वाली कठिनाइयों और मतभेदों से दंपत्ति को बचाने के लिए सलाह देती हैं, जिससे बिना अदालती पचड़ों में पड़े दांपत्य जीवन की गाड़ी को वापस पटरी पर लाया जा सकता है.


यदि वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों पर ध्यान दिया जाए तो तलाक की व्यवस्था विवाह संस्था के औचित्य को बचाने के लिए एक प्रासंगिक कदम है. हां, यह अवश्य होना चाहिये कि तलाक केवल उन्हीं परिस्थितियों में लिया जाए जब बाकी सब विकल्प निरर्थक साबित हो चुके हों. विवाह जैसी पवित्र संस्था का अंत केवल बदतर हालातों में ही किया जाना चाहिए. क्योंकि हमारा आधुनिक भारतीय समाज आज भी तलाकशुदा पुरुषों की तरफ तो ध्यान नहीं देता, लेकिन अपने पति से अलग हो चुकी महिलाओं के प्रति सम्मान की दृष्टि रखने में कोताही बरतता है. तलाकशुदा महिलाओं की स्थिति आज भी बेहद खराब और चिंतनीय है. इसीलिए जितना हो सके तलाक की स्थिति को टालना चाहिए. भारत में तलाकशुदा स्त्रियों की संख्या पुरुषों के मुकाबले अधिक है, जिसका सबसे बड़ा कारण यह है कि तलाकशुदा पुरुष अगर पुनर्विवाह करना चाहे तो उसे किसी भी प्रकार के सामाजिक तिरस्कार का सामना नहीं करना पड़ता, लेकिन अपने भविष्य को ध्यान में रखते हुए यही निर्णय कोई महिला ले तो उसके साथ घृणित व्यवहार किया जाता है.


तलाक जैसे बड़े निर्णय तक पहुंचने से पहले यह मुख्य रूप से ध्यान रखना चाहिए कि दांपत्य जीवन का अंत केवल महिला और पुरुष को एक-दूसरे से अलग ही नहीं करता बल्कि कुछ समय के लिए ही सही उन्हें भावनात्मक रूप से भी तोड़ देता है. साथ ही उनका यह निर्णय जिसे वे व्यक्तिगत मानते हैं, वे केवल उनसे नहीं, उनके पूरे परिवार से संबंधित होते हैं. हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि संबंध का निर्माण करना जितना आसान है, उन्हें बनाए रखना और उनका निर्वाह करना उतना ही मुश्किल. तलाक के दुष्परिणाम को जानते हुए जितना हो सके यह प्रयत्न किया जाना चाहिए कि ऐसे किसी भी विकल्प को अपनाने की आवश्यकता न पड़े, जो संपूर्ण परिवार को भावनात्मक रूप से चोट पहुंचाने के साथ-साथ किसी संबंध के खात्मे का कारण बने.


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