Menu
blogid : 316 postid : 955

क्या सच में पति का घर के कामों में हाथ बंटाना निंदनीय है?

womenपहले जब भारतीय समाज आधुनिकता की बयार से पूर्णरूप से अछूता था, तब सामाजिक परिस्थितियां हों या पारिवारिक, किसी भी रूप में इतनी जटिल नहीं थीं. यद्यपि परिवारों की आर्थिक हालत बहुत सुदृढ़ नहीं थी लेकिन भावनात्मक तौर पर परिवार काफी हद तक जुड़े हुए होते थे. इसका सबसे बड़ा कारण शायद यह था कि पारंपरिक पारिवारिक परिवेश में महिलाओं और पुरुषों के कार्यक्षेत्र पूर्ण विभाजित थे. जहां महिलाएं घर में ही रहकर परिवारजनों की देखभाल करती थीं, उनकी सभी जरूरतों को पूरा करने की कोशिश करती थीं वहीं पुरुष परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए घर से बाहर जाकर काम करता था.


लेकिन वर्तमान परिस्थितियां काफी परिवर्तित हो चुकी हैं. आज महिला हो या पुरुष, दोनों में ही स्वालंबन की चाह विस्तृत होती देखी जा सकती है. महिलाओं में भी अपनी पृथक पहचान बनाने की इच्छा प्रबल रूप से विद्यमान होने लगी है. वह स्वयं को केवल घर के कामों तक सीमित ना रखकर, आर्थिक तौर भी सशक्त होना चाहती हैं. बढ़ती महंगाई और वैयक्तिक जरूरतों की पूर्ति भी एक मुख्य कारक है जो पति-पत्नी दोनों को बाहर जाकर काम करने के लिए प्रेरित करता है.


लेकिन मात्र एक पहलू की विवेचना के आधार पर हमारा यह समझ लेना कि महिलाओं के पारिवारिक और सामाजिक हालात पुरुषों के समान मजबूत हो गए हैं और वह उपलब्ध सभी अधिकारों का आनंद बेरोक-टोक उठा रही हैं, थोड़ी जल्दबाजी होगा. क्योंकि हाल ही में हुआ एक अध्ययन यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित करता है कि केवल ऊपरी परिस्थितियों को आधार रखते हुए हमारा यह मान लेना कि पहले की अपेक्षा आज महिलाएं कहीं ज्यादा सहज और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही हैं, पूर्णत: निरर्थक है. महिलाएं भले ही स्वयं को इस काबिल समझ लें कि वह भी गृहस्थी को सुचारू रूप से चलाने और अपने पति को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए बाहर जा कर काम कर सकती हैं. लेकिन पुरुष कभी अपनी पत्नी की पारिवारिक जिम्मेदारियों को कम करने के बारे में नहीं सोच सकता. जब घर के काम में हाथ बंटाने की बात आती है तो महिलाओं को अकेले ही इस काम को करना पड़ता है. पुरुषों के ऐसे स्वभाव के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि पुरुषों की मानसिकता बदलते समय के साथ अभी तक परिमार्जित नहीं हो पाई है. वह आज भी स्वयं को महिलाओं से ऊंचा दर्जा ही देते हैं. घर के कामों में अपनी पत्नी की मदद करना उनके अहम और स्वाभिमान को ठेस पहुंचाता है.

वन नाइट स्टैंड – सोच समझ कर करें फैसला

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा कराए गए इस शोध की स्थापनाएं यह स्पष्ट तौर पर दर्शाती हैं कि पुरुषों में यह मानसिकता मुख्य रूप से विद्यमान हो चुकी है कि घर के कामों से उनका कोई लेना-देना नहीं है. पत्नी चाहे कितनी ही थकी हारी क्यों ना हो, खाना बनाना और कपड़े धोना केवल उसी का काम है. अपने कॅरियर को मनचाही दिशा देने के लिए महिलाओं को भले ही बिना किसी भेद-भाव के शैक्षिक और वैधानिक अधिकार प्राप्त हों, लेकिन पारिवारिक क्षेत्र में उन्हें किसी प्रकार की कोई सहायता प्राप्त नहीं है. वह अकेले ही घरेलू जिम्मेदारियों जैसे साफ-सफाई, खाना बनाना, कपड़े धोना, बच्चों का ध्यान रखना आदि के लिए बाध्य हैं. उनके पति को आज भी यह लगता है कि अगर वह यह सब कार्य करेंगे तो उनका मित्र समूह और परिवार के बाकी सदस्य उनका मजाक उड़ाएंगे.


शोधकर्ताओं का कहना है कि हमारे समाज में ऐसी मानसिकता मुख्य रूप से विद्यमान है जो यह निर्धारित करती है कि घरेलू क्षेत्र में पति-पत्नी के कार्य अलग-अलग हैं. पत्नी चाहे तो पति के कामों को निपटाने में सहायता कर सकती है लेकिन पति घर के कामों में दिलचस्पी लेने की बात सोचता भी नहीं है.


सोलह देशों के लगभग 3 लाख लोगों, जिनकी आयु 20-59 वर्ष के बीच थी, पर किए गए इस शोध ने यह निष्कर्ष प्रदान किया है कि हालिया परिस्थितियां और प्रचलन के मद्देनजर अगर महिलाएं चाहती हैं कि उनके पति भी घर के कामों में हाथ बटाएं तो उन्हें वर्ष 2050 तक का इंतजार करना पड़ेगा. क्योंकि पुरुषों की ऐसी मानसिकता में बदलाव आते हुए इतना समय तो लग ही जाएगा.


यद्यपि यह शोध एक ब्रिटिश संस्थान द्वारा, विदेशी परिवारों को ही ध्यान में रखकर किया गया है. लेकिन इसे भारत के संदर्भ में देखना भी अत्यंत आवश्यक है. विदेशी लोगों के विचार और मानसिकता अपेक्षाकृत खुली हुई होती है. ऐसे परिवारों में पति का घर के कामों में हाथ ना बंटाना अपनी-अपनी दिलचस्पी और शौक पर निर्भर करता है. लेकिन भारतीय परिवेश में यह मसला शौक से जुड़ा ना होकर पुरुषों के तथाकथित स्वाभिमान पर आधारित है. हमारे रुढ़िवादी समाज के अनुसार एक आदर्श पारिवारिक संरचना वह है जिसमें केवल पुरुष ही घर का मुखिया होता है और पूरा घर उसके आदेशों का पालन करता है. घर के कामों में हाथ बटाना पुरुष की शान के खिलाफ समझा जाता है. अगर गलती से कोई पुरुष अपनी पत्नी पर तरस खाते हुए उसकी सहायता कर भी दे तो उसे जोरू का गुलाम समझ उसकी निंदा की जाती है. जिसके परिणामस्वरूप उसके आत्म-सम्मान को क्षति पहुंचती है. अब ऐसे हालातों में पुरुष चाहते हुए भी अपनी पत्नी की सहायता नहीं कर पाता क्योंकि कहीं ना कहीं भावनाओं से ज्यादा महत्व वह अपने स्वाभिमान और प्रतिष्ठा को देता है. इसका पूरा खामियाजा उस पत्नी को भुगतना पड़ता है जो अपने पति और गृहस्थी को आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करवाती है और हर परिस्थिति में घर के कामों को भी निपटाती है. क्योंकि वह भली-भांति जानती है कि इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है. पत्नी की जिम्मेदारियां और अधिक इसीलिए भी बढ़ जाती हैं क्योंकि विदेशों के विपरीत यहां परिवारजनों और घरेलू कामों की संख्या भी अधिक होती है. उसके दयनीय हालातों को देखते हुए भी निर्मम पति अपने अहम को आगे रखते हुए अपने कर्तव्यों को अनदेखा कर देता है.


विदेशी संस्थान ने परिवारों और उनकी परिस्थितियों को केन्द्र में रखते हुए यह प्रमाणित कर दिया है कि वर्ष 2050 तक सभी पुरुष घर के कामों में अपनी पत्नी का बराबर का साथ देंगे. लेकिन भारत के वर्तमान हालात स्वयं चिंता का विषय हैं. यहां रुढ़िवादी मानसिकता इस हद तक गहरी बैठी है कि पारिवारिक संरचना में बदलाव के संकेत मिलना भी कठिन प्रतीत होता है. खैर उपरोक्त विवेचन और ब्रिटिश अध्ययन के आधार पर कम से कम हम यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि शायद भारतीय पुरुष अपने तथाकथित आत्म-सम्मान को छोड़कर आपसी संबंधों और प्रेम सरीखी भावनाओं को महत्व देंगे और पत्नी की मदद करना अपना अपमान नहीं मानेंगे.

सास-बहू के बीच मधुर संबंध कैसे बने ?

भारत में फ्लर्टिंग संस्कृति का असर !!

किशोर अपराध – सजा नहीं बल्कि सुरक्षा और देखभाल की जरूरत

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh