भारतीय समाज हमेशा से ही पुरुष प्रधान रहा है. प्राचीन काल से ही यहां जितनी प्रथाएं या मान्यताएं विकसित की गईं, उनका सीधा संबंध पुरुषों को महिलाओं से श्रेष्ठ साबित कर, स्त्रियों को किसी ना किसी रूप में पुरुषों के अधीन रखना था. सती प्रथा हो या फिर बहु विवाह का प्रचलन, परंपराओं का नाम देकर महिलाओं के हितों की आहुति देना कोई बुरी बात नहीं मानी जाती थी. भले ही वर्तमान समय में ऐसी अमानवीय प्रथाएं अपना अस्तित्व खो चुकी हैं, लेकिन इन्हीं कुप्रथाओं में से एक दहेज प्रथा आज भी विवाह संबंधी रीति-रिवाजों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. समय बदलने के साथ-साथ इस प्रथा के स्वरूप में थोड़ी भिन्नता अवश्य आई है लेकिन इसे समाप्त किया जाना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है.
दहेज प्रथा एक ऐसी सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था है जिसके अनुसार विवाह के समय पिता अपनी बेटी को ससुराल विदा करते समय उसके साथ कुछ तोहफे और धन भी भेजता है. इस धन और तोहफों को स्त्रीधन के नाम से भी जाना जाता है. प्राचीन समय में पुरुष अपनी पसंद की स्त्री का हाथ मांगते समय उसके पिता को कुछ तोहफे उपहार में देता था, समय बदला और पिता अपनी पुत्री को अपनी इच्छानुसार तोहफे देने लगे. ससुराल पक्ष इसमें ना तो कोई मांग रखता था और ना ही दहेज को अपनी संपत्ति कह सकता था. लेकिन अब हालात पूरी तरह बदल चुके हैं. प्राचीन काल में शुरू हुई यह परंपरा आज अपने पूरे विकसित और घृणित रूप में हमारे सामने खड़ी है.
दहेज प्रथा एक ऐसा सामाजिक अभिशाप है जो महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों, चाहे वे मानसिक हों या फिर शारीरिक, को बढावा देता है. इस व्यवस्था ने समाज के सभी वर्गों को अपनी चपेट में ले लिया है. अमीर और संपन्न परिवार जिस प्रथा का अनुसरण अपनी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा दिखाने के लिए करते हैं वहीं निर्धन अभिभावकों के लिए बेटी के विवाह में दहेज देना उनके लिए विवशता बन जाता है. क्योंकि वे जानते हैं कि अगर दहेज ना दिया गया तो यह उनके मान-सम्मान को तो समाप्त करेगा ही साथ ही बेटी को बिना दहेज के विदा किया तो ससुराल में उसका जीना तक दूभर बन जाएगा. संपन्न परिवार बेटी के विवाह में किए गए व्यय को अपने लिए एक निवेश मानते हैं. उन्हें लगता है कि बहूमूल्य उपहारों के साथ बेटी को विदा करेंगे तो यह सीधा उनकी अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाएगा. इसके अलावा उनकी बेटी को भी ससुराल में सम्मान और प्रेम मिलेगा.
हमारा सामाजिक परिवेश कुछ इस प्रकार बन चुका है कि यहां व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसके आर्थिक हालातों पर ही निर्भर करती है. जिसके पास जितना धन होता है उसे समाज में उतना ही महत्व और सम्मान दिया जाता है. ऐसे परिदृश्य में लोगों का लालची होना और दहेज की आशा रखना एक स्वाभाविक परिणाम है. आए दिन हमें दहेज हत्याओं या फिर घरेलू हिंसा से जुड़े समाचारों से दो-चार होना पड़ता है. यह मनुष्य के लालच और उसकी आर्थिक आकांक्षाओं से ही जुड़ी है. इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिसे जितना ज्यादा दहेज मिलता है उसे समाज में उतने ही सम्माननीय नजरों से देखा जाता है.
दहेज प्रथा समाप्त करने के लिए सरकार ने वर्ष 1961 में दहेज प्रतिषेध अधिनियम पारित किया था. लेकिन आज भी इसके स्वरूप या पारिवारिक मान्यताओं में कोई परिवर्तन नहीं आया. इसके विपरीत इसकी लोकप्रियता और चलन दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है. अभिभावक बेटी के पैदा होने पर खुशी जाहिर नहीं कर पाते, क्योंकि कहीं ना कहीं उन्हें यही डर सताता रहता है कि बेटी के विवाह में खर्च होने वाले धन का प्रबंध कहां से होगा. इसके विपरीत परिवार में जब बेटा जन्म लेता है तो वंश बढ़ने के साथ धन आगमन के विषय में भी माता-पिता आश्वस्त हो जाते हैं. यही वजह है कि पिता के घर में भी लड़कियों को महत्व नहीं दिया जाता. बोझ मानकर उनके साथ हमेशा हीन व्यवहार ही किया जाता है. वहीं विवाह के पश्चात दहेज लोभी ससुराल वाले विवाह में मिले दहेज से संतुष्ट नहीं होते बल्कि विवाह के बाद वधू को साधन बनाकर उसके पिता से धन और उपहारों की मांग रखते रहते हैं, जिनके पूरे ना होने पर युवती के साथ दुर्व्यवहार, मारपीट होना एक आम बात बन गया है.
दहेज प्रथा भारतीय समाज पर एक बहुत बड़ा कलंक है जिसके परिणामस्वरूप ना जाने कितने ही परिवार बर्बाद हो चुके हैं, कितनी महिलाओं ने अपने प्राण गंवा दिए और कितनी ही अपने पति और ससुराल वालों की ज्यादती का शिकार हुई हैं.
सरकार ने दहेज प्रथा को रोकने और घरेलू हिंसा को समाप्त करने के लिए कई योजनाएं और कानून लागू किए हैं. लेकिन फिर भी दहेज प्रथा को समाप्त कर पाना एक बेहद मुश्किल कार्य है. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि भले ही ऊपरी तौर पर इस कुप्रथा का कोई भी पक्षधर ना हो लेकिन अवसर मिलने पर लोग दहेज लेने से नहीं चूकते. अभिभावक भी अपनी बेटी को दहेज देना बड़े गौरव की बात समझते हैं, उनकी यह मानसिकता मिटा पाना लगभग असंभव है.
दहेज प्रथा को जड़ से समाप्त करने के लिए समाज सुधारकों द्वारा किए गए महत्वपूर्ण और प्रभावपूर्ण प्रयत्नों के बावजूद इसने अत्यंत भयावह रूप धारण कर लिया है. इसका विकृत रूप मानव समाज को भीतर से खोखला कर रहा है. वर्तमान हालातों के मद्देनजर यह केवल अभिभावकों और जन सामान्य पर निर्भर करता है कि वे दहेज प्रथा के दुष्प्रभावों को समझें. क्योंकि अगर एक के लिए यह अपनी प्रतिष्ठा की बात है तो दूसरे के लिए अपनी इज्जत बचाने की. इसे समाप्त करना पारिवारिक मसला नहीं बल्कि सामूहिक दायित्व बन चुका है. इसके लिए जरूरी है कि आवश्यक और प्रभावी बदलावों के साथ कदम उठाए जाएं और दहेज लेना और देना पूर्णत: प्रतिबंधित कर दिया जाए. अभिभावकों को चाहिए कि वे अपनी बेटियों को इस काबिल बनाएं कि वे शिक्षित बन स्वयं अपने हक के लिए आवाज बुलंद करना सीखें. अपने अधिकारों के विषय में जानें उनकी उपयोगिता समझें. क्योंकि जब तक आप ही अपनी बेटी का महत्व नहीं समझेंगे तब तक किसी और को उनकी अहमियत समझाना नामुमकिन है.
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