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आय की अधिकता बच्चों को स्वार्थी बना देती है…लेकिन क्यों ?

man with moneyराघव ने अपना बचपन आर्थिक तंगी में गुजारा है. अपने पिता की सहायता करने के लिए उसने पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करना भी शुरू कर दिया था. पढ़ाई और नौकरी के बीच संतुलन बनाना कभी कभार बेहद कठिन हो जाता था, लेकिन राघव ने कभी इस बात की शिकायत अपने माता-पिता से नहीं की. अत्याधिक व्यस्त होने के बावजूद भी उसने कभी अपने माता-पिता की जिम्मेदारियों से मुंह नहीं फेरा. उसने हमेशा अभिभावकों की जरूरतों और उनकी खुशियों का ध्यान रखा और उन्हें अपना कर्तव्य समझ पूरे दिल से उन्हें निभाया. लेकिन अब हालात पहले जैसे नहीं रहे. एक छोटी नौकरी से शुरू किया गया उसका कॅरियर भले ही आज सफलता की उंचाई छू रहा है लेकिन अब परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को निभाना उसकी प्राथमिकताओं में शामिल नहीं रहा. जैसे-जैसे उसकी आय में वृद्धि होती गई, वैसे-वैसे वह अपने परिवार से दूर होता चला गया. आज वह अपने आप में इतना अधिक व्यस्त हो चुका है कि उसे अभिभावकों की भावनाएं बेमानी लगने लगी हैं. परिणामस्वरूप पहले जो परिवार आर्थिक तंगी से जूझने के बावजूद एक दूसरे से भावनात्मक तौर पर जुड़ा हुआ था आज वही परिवार अपनी धन संबंधी सभी जरूरतें तो बिना किसी समस्या के पूरी कर लेता है लेकिन अपने बेटे के साथ थोड़ा सा समय बिताने के लिए भी तरस जाता है. अपने इकलौते बेटे की उपेक्षा ने माता पिता को पराश्रितों जैसा महसूस करावना शुरू कर दिया है. कई बार उन्हें ऐसा लगता है कि इस संपन्न जीवन से तो पहले के तंगहाली वाले दिन कहीं ज्यादा बेहतर थे.


अगर आपको लगता है कि ऐसी स्थिति राघव और उसके परिवार का आपसी मसला है, इसका हमारे युवाओं और उनकी प्राथमिकताओं से कोई लेना-देना नहीं हैं, तो अमेरिका में हुआ एक अध्ययन आपकी इस भ्रांति को दूर कर सकता है. क्योंकि इस शोध ने स्पष्ट तौर पर यह प्रमाणित कर दिया है कि धन की अधिकता परिवारों की मजबूती को खोखला बना देती है. आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों में प्यार और लगाव जैसी भावनाएं कम हो जाती हैं. जिन बच्चों की परवरिश में माता-पिता अपना सारा जीवन समर्पित कर देते हैं वहीं बच्चे जब अच्छी कमाई करने लगते हैं, अच्छे ओहदे पर पहुंच जाते हैं तो उनके पास अपने बुजुर्ग अभिभावकों के लिए समय ही नहीं बचता.


इसके विपरीत मध्यम आय वर्ग वाले परिवारों के पास पैसा भले ही कम हो लेकिन बच्चे अपने माता-पिता की अपेक्षाओं और उनकी भावनाओं का पूरा आदर करते हैं. वह उन्हें बोझ नहीं अपनी जिम्मेदारी समझते हैं. अपनी परेशानियों को माता-पिता के साथ बांटते हैं. जरूरत पड़ने पर उनसे सलाह-मशविरा भी करते हैं. साथ खाना खाते और एक-दूसरे के साथ हंसी-मजाक भी करते हैं.


आमतौर पर यह माना जाता है कि बेटों की अपेक्षा बेटियां अपने माता-पिता का ज्यादा ख्याल रखती हैं. वह अपने माता-पिता को हमेशा अपनी प्राथमिकताओं में रखती हैं. उनके लिए विवाह के बाद भी माता-पिता उतने ही जरूरी होते हैं. लेकिन इस सर्वेक्षण ने हमें इस पक्ष पर दोबारा ध्यान देने के लिए विवश कर दिया है. क्योंकि प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार वेतन में हर 10% की वृद्धि से महिलाएं अपने माता-पिता की 36% और पुरुष 18% कम देखभाल करते हैं. जिसका अर्थ यह निकलता है कि आय की अधिकता महिलाओं की जीवनशैली में बदलाव लाने के साथ–साथ उनके भावनात्मक पक्ष को भी नकारात्मक ढंग से परिवर्तित करती है.

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यह शोध भले ही विदेशी लोगों को केन्द्र में रखकर किया गया हो. लेकिन केवल इसी वजह से हमारा यह सोच लेना कि भारतीय परिदृश्य में इसके नतीजे निरर्थक और बेबुनियाद हैं और जिसका हमारी जीवन शैली और प्राथमिकताओं से कोई लेना-देना नहीं हैं तो हमारी ऐसी मानसिकता हमें वर्तमान हालातों को समझने नहीं देगी.


एक पुराने फिल्मी गाने की पंक्तियां यही पैसा तो अपनों से दूर करे है वर्तमान भारतीय युवाओं के संदर्भ में बिलकुल सटीक बैठती है. ऐसा अकसर देखा जाता है कि आत्मनिर्भर होने के बाद बच्चे अपने माता-पिता की अनदेखी करने लगते हैं. वे उनकी बातों को टालना शुरू कर देते हैं. बाहर काम करने और लोगों से मेल-जोल भी अधिक हो जाने के कारण उनका सामाजिक दायरा काफी हद तक विस्तृत हो जाता है. जिसके परिणामस्वरूप दोस्तों के साथ मौजमस्ती, घूमना-फिरना और पार्टी करना उनकी जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा बन जाता है. अत्याधिक व्यस्तता के बीच उन्हें अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का ध्यान ही नहीं आता. जब उन्हें यह लगने लगता है कि अब वह आर्थिक रूप से पूरी तरह सशक्त हो चुके हैं और उन्हें अपने अभिभावकों के दायरे में रहने की कोई जरूरत नहीं हैं तो वह पूरी तरह अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति उदासीन हो जाते हैं और अपना जीवन केवल स्वयं तक ही सीमित कर लेते हैं.


इसके अलावा कई ऐसे बच्चे भी हैं जो अच्छी नौकरी और आय की तलाश में देश से बाहर गए और वहीं के होकर रह गए. ऐसे में वे माता-पिता, जिन्होंने इस उम्मीद में अपना सारा जीवन बिता दिया कि उनके बच्चे बड़े होकर उनका सहारा बनेंगे, तन्हा और बेसहारा रह जाते हैं. बच्चे अपनी जिम्मेदारियों को भूल अभिभावकों के लिए मासिक खर्च भेजकर ही अपने कर्तव्य को पूरा कर लेते हैं. लेकिन वह यह नहीं समझ पाते कि पैसा भौतिक जरूरतें पूरी कर सकता है. भावनाओं के आगे पैसे का कोई मोल नहीं होता.


ऐसे स्वार्थी और अति-महत्वाकांक्षी लोगों की भी भारत में कोई कमी नहीं है जो अपने कॅरियर के आगे माता-पिता को बोझ समझते हैं. भले ही उनके पास पैसा कितना ही हो, लेकिन वह उसका थोड़ा सा भाग भी माता-पिता को समर्पित नहीं करना चाहते. अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाने के लिए वह अपने माता-पिता को यह कहते हुए वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं कि वे जल्द ही उन्हें लेने आएंगे, लेकिन दुर्भाग्यवश वह दिन कभी नहीं आता. बेचारे माता-पिता अपने बच्चे के इंतजार में ही दिन गुजारने लगते हैं.

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यह हमारे तथाकथित भावनात्मक और सभ्य समाज की एक कड़वी हकीकत है जिसे हम कितना ही नजरअंदाज करना चाहें पर किसी ना किसी रूप में हमारे सामने आ ही जाती है. लेकिन अगर हम यह मान लें कि ऐसे हालातों के जिम्मेदार सिर्फ वे बच्चे ही हैं तो इससे अभिभावकों के उत्तरदायित्वों और बचपन में दी गई उनकी सीख का महत्व गौण पड़ जाएगा. पारिवारिक परिस्थितियां और अभिभावकों की मानसिकता बच्चे पर बहुत गहरा असर डालती हैं. आर्थिक तंगी से जूझ रहे माता-पिता बच्चों को अधिक से अधिक पैसा कमाने और बड़ा आदमी बनने के लिए प्रेरित करते हुए उन्हें पैसे का सदुपयोग और उसके दुष्प्रभाव के बारे में बताना भूल जाते हैं. जब माता-पिता अपने बच्चों को संयम में रहना नहीं सिखाएंगे तो संभव है आगे चलकर बच्चे कुछ ना कुछ ऐसा कर जाएंगे जो माता-पिता को कष्ट पहुंचाने का काम करेगा.


आगे चलकर ऐसे हालातों का सामना ना करना पड़े इसके लिए बेहद जरूरी है कि बच्चों की जिस प्रगति को हम अपने परिवार की उन्नति के लिए अच्छा संकेतक मानते हैं, उसके लिए पहले से सोच-समझकर एक भावनात्मक तौर से मजबूत पृष्ठभूमि तैयार कर लें. बच्चों के ऐसे व्यवहार के लिए उन्हें कोसने और खुद को प्रताड़ित करने से कहीं ज्यादा बेहतर है कि उनमें पहले से ही नैतिक रूप से सही और गलत की समझ पैदा करें, ताकि आगे चलकर किसी भी माता-पिता को उपेक्षित जीवन ना जीना पड़े.

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