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आपने कभी सोचा है कि जो परिधान आप पहन रहे हैं उसके पीछे का क्या है रहस्य

भारतीय परिधान भारतवासियों के धार्मिक, सांस्कृतिक और जनजातीय पहचान से जुड़ा है. यूँ तो भारत में वस्त्रों का इतिहास काफी पुराना है……. पुराना इतना, जितना कि सिंधु घाटी सभ्यता का इतिहास रहा है. परंतु, समय के साथ बाहरी संस्कृतियों के मिश्रण से हमारे पहनावे में काफी बदलाव हुए हैं. बिना सिली धोती से लेकर गलेबंद कोट तक और उससे आगे का सफर कैसा रहा है, इससे रूबरू होने का मौका मिलेगा आपको इस लेख में.




भारत में वस्त्र पहनने की परंपरा पुरानी है. जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया हमारे परिधानों और उन्हें पहनने के तरीकों में भी बदलाव होते गए. भारत की विविध संस्कृति और विशाल भौगोलिक ईकाई होने के कारण यहाँ पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण में कपड़े और उन्हें पहनने के ढंग में काफी अंतर है.


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सिंधु घाटी सभ्यता में रंग और वस्त्र इस सभ्यता में सूत कातने और रंगने के प्रमाण मिलते हैं. सूती वस्त्र उद्योग पर्याप्त विकसित थी और उस समय प्रयोग में रहे कुछ तरीके आज भी चलन में हैं. कपड़ों की रंगाई को भारत में कला के तौर पर देखा जाता था. पाँच तरह के मूल रंगों की पहचान कर ली गई थी जिन्हें शुद्ध वर्ण कहा जाता था. सामान्य रूप से जो रंग प्रचलित थे उनमें इंडिगो और सैफ्लावर थे. इन्हें मिला कर नए रंग बनाए जाते थे जिन्हें मिश्रित वर्ण कहते थे.


वैदिक युग में महिलाओं और पुरूषों के शरीर का ऊपरी भाग निर्वस्त्र रहता था. सिले हुए कपड़े पहनने का प्रचलन नहीं था क्योंकि सिलाई को अपवित्र समझा जाता था. सिलाई को अपवित्र समझने के प्रमाण आज भी पूजा-पाठ के दौरान देखने को मिलते हैं जिसमें धोती और गमछे जैसे वस्त्रों का इस्तेमाल किया जाता है जो सिले नहीं होते. सबसे पहले कपड़े को जांघिया के रूप में पहना गया. इससे पुरूष अपने निजी अंग को ढ़कते थे.

मौर्य शासन और यूनानियों के आक्रमण के समय भी लोग वैदिक युग में प्रचलित कपड़ों को पहनते थे, पर कहीं-कहीं घाघरा के प्रचलन में आने के प्रमाण भी मिलते हैं. इसी समय चीन से रेशम का आयात किया जाने लगा था. लोगों ने उपरी भाग को ढ़कने के लिए कंचुका पहनना शुरू किया. यह कवच की तरह का होता था.


कुषाण वंश के शासन के दौरान रोम से व्यापार होने लगा था जिससे ड्रेप के विभिन्न तरीके अस्तित्व में आए, जो आज के समय के साड़ी पहनने के तरीकों में दिखता है. भारत के पश्चिमी इलाकों में पारसियों के बसने से पारसी टोपी अस्तित्व में आया. पारसियों को उनकी टोपी के जरिए आसानी से पहचाना जा सकता है.


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गुप्त वंश के शासन के दौरान महिलाओं में तौलिया लपेटने की परंपरा की जगह लहँगा पहनने की शुरूआत हुई, परंतु रानी और शाही परिवार की स्त्रियाँ इस मामले में रूढिवादी बनी रही. तौलिया लपेटने की शैली आज भी महाराष्ट्र और दक्षिण भारत की स्त्रियों के पहनावे में देखा जा सकता है. अगर पुरुषों की बात करे तो कालांतर में जांघिया शैली ने लुंगी शैली का रूप लिया. उत्तरी और पूर्वी भारत के पुरूषों में लुंगी पहनने की शैली का विकास हुआ.


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भारत में मुगल सल्तनत के शासन से भारतीय परिधानों में कुर्ता-पायजामा का चलन शुरू हुआ. महिलाओं ने सलवार कमीज पहनना शुरू किया. नाक की नथुनी आर्कषण का केंद्र हुआ करती थी. इसे हम पश्चिमी भारत में आज भी देख सकते हैं, लेकिन शुरूआत में ये परिधान केवल शाही परिवार और सम्मानित व्यक्तियों के लिए ही थे. धीरे-धीरे इसे सामान्य लोगों ने भी पहनना शुरू कर दिया. तुर्किस्तान जैसे ठंडे प्रदेशों से आने वाले बाबर ने भारत में कोट पहनने की परंपरा का विकास किया. इसी समय न्यायाधीशों और शिक्षित लोगों ने अरबी वस्त्र गाउन पहनना शुरू कर दिया था. सलवार, शेरवानी और अफगानी कराकुली टोपी मुगलों की ही देन है. आज भी दिल्ली में ठंड के समय में लोग कराकुली टोपी पहनते हैं.


यह कहा जा सकता है कि भारत में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और राजस्थान से लेकर नागालैंड तक के परिधान विदेशी संस्कृतियों के आकर यहाँ बसने से प्रभावित होती रही हैं. जहाँ उत्तर-पूर्वी राज्यों में मंगोल जाति के पहनावे का असर दिखता है वहीं उत्तर-पश्चिम के राज्यों में यूनानियों, अफगानियों और मध्य एशिया के देशों के परिधानों का असर साफ दिखता है.



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