तारों की टिमटिमाहट के बीच भी वह गहरी काली रात अपने अंधेरे का दामन नहीं छोड़ रही थी. चारों ओर गहरा सन्नाटा पसरा था. तेज हवा अपने साथ मिट्टी का भंवर बना इधर-उधर घुमा रही थी. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो रात के सन्नाटे को चीरने के लिए उठा भंवर भी अंधेरे के इस खेल में अपनी हार मान रहा था. हवा धीरे-धीरे अपनी गति खो रही थी. एक किनारे में बनी झोपड़ी के पास रस्सी पर सुख रहे कपडे भी हवा में उड़ते हुए अब वापस थक कर बैठ चुके थे. इतनी काली रात मानो किसी अशुभ घटना का संकेत दे रही है.
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अचानक तेज़ रोशनी हुई, ज़मीन पर सफ़ेद धोती में अर्धनग्न अवस्था में बैठे उस आदमी ने अपनी बीड़ी को माचिस से जलाया. काली काया के पतला से उस आदमी का शरीर हड्डियों के ढांचे से कम प्रतीत नहीं हो रहा था. न जाने कितने दिनों से उसे कुछ ख़ास खाने को नहीं मिला था. उसने अपनी बीड़ी को जलाया व पूरा कश भर लिया. धुंए के साथ-साथ उसके अंदर की परेशानियां भी बाहर दिखने लगी. माथे पर चिंता की लकीरें और चढ़ी हुई भौहें साफ दिखा रही थी की विचारों के सागर ने उसे घेर लिया है. बीड़ी के हर कश के साथ उसके माथे पर शिकन व चेहरे पर चिंता के भाव बढ़ते जा रहे थे. उसकी आँखों में किसी तरह के भाव नहीं थे. उसकी बीड़ी ख़त्म हो चुकी थी. ज़मीन पर अपनी बीड़ी को दबाते हुए बड़े बोझिल मन से वो उठ खड़ा हुआ. उसके चेहरे पर दिख रही चिंता, उसके मन में चल रही उथल-पुथल को बयां कर रही थी.शायद उसके पास सोचने को बहुत कुछ था, पर उसका दिमाग कुछ भी सोच नहीं पा रहा था. अचानक मानो किसी निर्णय पर पहुंच, वो उठा और रस्सी को अपने गले से बाँध पेड़ पर लटक गया. वही अँधेरा, ज़मीन पर बिखरे कपडे, एक बार फिर तेज़ हवा चल पड़ी पर सन्नाटा वही था, किसी की मौत का किसी के जीवन में पसरे अँधेरे का सन्नाटा.
यह कहानी नहीं बल्कि हमारे देश में आए दिन आत्महत्या कर रहे उन किसानों की दास्ताँ है जो ज़िन्दगी से हार मान जाते हैं. उनके मन में तो तूफान उठा होता है पर कहने के लिए कोई लफ्ज़ उनके मुंह से नहीं निकलते. अपनी बेबसी का प्रमाण देने के लिए उन्हें अपनी जान तक गंवानी पड़ती है. आंकड़ों के अनुसार 2011 के मुकाबले अब तक किसानों की आत्महत्या के मामले 47 प्रतिशत तक बढ़ चुके हैं. सरकार द्वारा अनेकों योजनाओं को नाम ज़रूर दिया गया है, परन्तु उसका थोड़ा भाग भी शायद ही असली ज़रूरतमंदों तक पंहुचा हो.
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भारत का एक बड़ा वर्ग न केवल अपनी जीविका के लिए कृषि पर आधारित है, अपितु मेट्रो सिटीज़ या यूं कहें अर्बन एरिया भी इन्हीं किसानों व कृषि पर अपनी रोज़मर्रा की आवश्यकताओं के लिए निर्भर है, परन्तु ऐसे कई तथ्यों के स्पष्टीकरण के बाद भी अगर किसान अपनी समस्याओं का निवारण नहीं पा रहे तो इसमें बेशक ही वह स्वयं दोषी हैं. किसान आत्महत्या आज की बात नहीं है, कई वर्षों पहले से चली इस समस्या का किसी सरकार के नुमाइंदों व जनता के पास कोई जवाब नहीं है.
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छोटे स्तर पर कार्य करने वाले देश के ये गरीब जिन्हे दो वक़्त की रोटी कमाना मुश्किल पड़ जाता है, वह देश की अर्थव्यवस्था में कितनी बड़ी भूमिका निभा रहे हैं इसका कोई अंदाज़ा भी नहीं लगाना चाहता. इसका मतलब की आप और हम जिस किसान के बलबूते अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को ढंग से चला पा रहे हैं उनकी ओर किसी का भी ध्यान नहीं गया. ये केवल सरकार की नहीं अपितु आपकी और हमारी लापरवाही है की भारत जैसे कृषि प्रधान देश में हर आधे घंटे में एक किसान अपनी परिस्थितियों के सामने घुटने टेक देता है. अपने मुनाफे की सोचने वाले इन तथाकथित किसान मित्रों व उनके जीवन पर आधारित आम जनता के पास इतना समय ही कहां है की वह पहले आप के तमाशे को छोड़ जंग लग चुकीं योजनाओं को दरकिनार कर सकें और फांसी पर लटकी इन लाशों में जान भर सके. Next…
साक्षी पंड्या – लेखक दैनिक जागरण ऑनलाइन से जुड़ी हुई हैं
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