भारतीय समाज में कन्या-वध जैसी घटनाओं और पारिवारिक मान्यताओं का इतिहास बहुत पुराना है. पहले लड़की के पैदा होने पर परिवार में शोक मनाया जाता था. आगे चलकर लड़की की वजह से अपमानित ना होना पड़े इसीलिए जन्म लेते ही उन्हें जमीन में गाड़कर या दूध में डुबोकर मार दिया जाता था. मुसलिम आक्रमण के दौर में जब स्त्रियां ही मुसलमान राजाओं के निशाने पर होती थीं, ऐसी परिस्थितियों में या तो उन्हें घर से बाहर ही नहीं जाने दिया जाता था या फिर जन्म लेते ही उनका वध कर दिया जाता था. धीरे-धीरे यह सामाजिक मजबूरी एक प्रथा में परिवर्तित हो गई. लड़की का पैदा होना अपमानजनक और दूधमुंही कन्या का वध एक दैविक कृत्य की भांति अपनी पहचान बनाने लगा.
समय बदलने के साथ-साथ इस प्रथा को रोकने की कोशिशें भी तेज होती रहीं. कई कानून बनाए गए, विरोध प्रदर्शन हुए. इसके अलावा यह भी उम्मीद की जा रही थी कि अगर सर्वआयामी शिक्षा को महत्व दिया जाए, हर वर्ग के लोगों को शिक्षा के दायरे में लाया जाए तो नि:संदेह ऐसे जघन्य अपराधों पर लगाम कसी जा सकती है. लेकिन यह सोच लेना भर काफी नहीं था.
आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने मनुष्य जीवन के लगभग हर क्षेत्र में अपनी उपयोगिता प्रमाणित की है, लेकिन इस प्रगति का दूसरा पहलू यह भी है इसी प्रौद्योगिकी विकास के कारण ना जाने कितनी ही मासूम जानें मां की कोख में ही अपना दम तोड़ देती हैं. विज्ञान की सहायता से अब जन्म से पूर्व भ्रूण के लिंग की जांच कर पाना संभव हो गया है, जिसके चलते भारत समेत कई एशियाई देशों में लड़कियों के सांस लेने का अधिकार भी छिन गया है. माता-पिता कभी अपनी मजबूरी का हवाला देकर, कभी गरीबी को कारण बताकर कन्या को भ्रूण में ही मार डालते हैं.
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के अनुसार वैज्ञानिक संसाधनों के बढ़ते प्रचलन के कारण भारत और चीन में 11 करोड़ 70 लाख महिलाओं की कमी हो गई है.
जहां एक ओर यह आंकड़े जन्म से पूर्व लिंग परीक्षण के बढ़ते प्रयोग को दर्शाते हैं वहीं निश्चित तौर पर यह भी साबित करते हैं कि हमारा तथाकथित आधुनिक समाज आज भी बेटों को ही प्राथमिकता देता है. परिवार के लिए बेटी को पैदा होने से पूर्व मार डालना सहज लगता है बजाय उसे पढ़ा-लिखा कर अच्छा जीवन देना. इन परीक्षणों को करवा माता-पिता पहले ही अपने होने वाले बच्चे के लिंग का पता लगा लेते हैं. कई बार यह जिज्ञासा के कारण होता है तो कई बार बेटी से मुक्ति पाने के लिए.
दहेज-प्रथा के प्रचलन के कारण परिवार में कन्या को बोझ ही मान लिया गया है. वे परिवार जिनके आर्थिक हालात इतने सशक्त नहीं होते कि अपनी बेटी का विवाह कर सकें, वे ऐसी तकनीकों पर भरोसा करते हैं और जन्म से पूर्व अपनी बेटी को मार डालते हैं. कई लोग अपनी संकीर्ण मानसिकता के चलते भी कन्या वध जैसी घटनाओं को अंजाम देते हैं. हालांकि कई मामलों में भ्रूण परिक्षण और कन्या भ्रूण की हत्या महिला के इच्छा के विरुद्ध या उसे बिना बताए होती है, लेकिन कई बार महिलाएं स्वयं बेटी से छुटकारा पाने की इच्छुक रहती हैं.
यद्यपि कानूनी तौर पर जन्म से पूर्व लिंग परीक्षण करवाना एक अपराध है, जिसके लिए लिंग का परीक्षण करने वाले डॉक्टर और अभिभावक दोनों को ही सजा का भागी माना जाता है. हमारे समाज की विडंबना ही यही है कि यहां हर त्यौहार पर देवी की पूजा की जाती है, भारत को माता कहा जाता है, लेकिन जब व्यवहारिक रूप में लड़कियों को सम्मान, उन्हें अधिकार देने की बात आती है तो उन्हें आवाज उठाने का अवसर तक नहीं दिया जाता.
इस पुरुष प्रधान समाज में समानता जैसे विषयों में बात करना तक निरर्थक है. क्योंकि जहां एक ओर महिलाओं को अपनी मर्जी से सांस लेने तक का अधिकार नहीं है वहीं पुरुष अपनी इच्छा के अनुसार जैसे चाहे वैसे जीवन यापन करें. उसमें ना तो परिवार कोई हस्तक्षेप करता है और अभिभावक भी उन पर ज्यादा नियंत्रण नहीं रखते.
आज जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां महिलाओं ने अपनी विजय पताका ना फहराई हो. लेकिन फिर भी संकीर्ण मानसिकता के शिकार अभिभावक और हमारा समाज अपनी खामियों को छुपाने के लिए महिलाओं का दोहन, उनका अपमान करना उपयुक्त समझते हैं.
शिक्षा और प्रगति पर चलते हुए भारतीय परिवेश में अभिभावक आज भी यही सोच संभाले हुए हैं कि बेटी पैदा हुई तो उसे दूसरे के वंश को बढ़ाना है इसीलिए हमारे परिवार में वो हो या ना हो इससे क्या अंतर पड़ता है. इसके विपरीत बेटा ही वंश आगे बढ़ाता है, इसीलिए बेटे को पूरे लाड़-प्यार के साथ पाला-पोसा जाता है. ऐसी मानसिकता लिए हुए अभिभावक यह भूल जाते हैं कि जब उनकी तरह अन्य लोग भी भ्रूण में कन्या का वध कर देंगे या उसे पैदा होते ही मार डालेंगे तो उनका वंश बढ़ाने वाली कहां से आएगी.
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