देशभर में बिहार चुनाव की सियासत का डंका जोर-शोर से बजा हुआ है. सभी की निगाहें बिहार चुनाव के आने वाले नतीजों पर लगी हुई है. बिहार की डोर किसके हाथ में जाएगी, इस बात को लेकर चर्चाओं का दौर गर्म होता नजर आ रहा है. जरा सोचिए लोग भविष्य को जानने के लिए कितने तत्पर दिखाई दे रहे हैं. लेकिन अधिकतर लोगों को वर्तमान की खबर तक नहीं है, जहां वर्षो से पूर्व मुख्यमंत्री का परिवार गरीबी के दंश को झेलने पर मजबूर है. उन्हें बिहार की सियासत में बदलाव से कोई मतलब नहीं है. जिसके पास दो वक्त की रोटी जुटाने का जुगाड़ तक न हो, उसके लिए राजनीति या देश की बात करना महज एक मजाक ही है.
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भोला पासवान शास्त्री बिहार की राजनीति में ऐसा चेहरा है जिसे शायद आज कोई पहचान भी ना पाए. आज की पीढ़ी को शायद नाम भी मालूम ना हो, लेकिन 60 के दशक में इनकी तूती बोलती थी. भोला पासवान शास्त्री 1967 में 3 महीने, 1968 में 6 महीने और 1969 में 28 दिन के लिए बिहार के मुख्यमंत्री रहे. अब अंदाजा लगाइए कि जिस शख्स ने तीन बार बिहार की सत्ता संभाली, जो चार बार बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे, उसका परिवार आज गांव में दाने-दाने को मोहताज है. इस परिवार की त्रासदी ये रही कि भोला पासवान शास्त्री के निधन के बाद लोग उन्हे भूल गए. वे खुद बेऔलाद थे और दलित परिवार की वजह से इनके नाम पर दूसरों ने तो राजनीति की, लेकिन उनका अपना परिवार गांव में ही रह गया. हालत ये हो गई कि लोग ये भूल गए कि इनका कोई परिवार भी है. हालत का अंदाजा लगाइए कि पूर्णिया के सांसद ने पूर्व मुख्यमंत्री के पुश्तैनी मकान में शौचालय के लिए 50 हजार की मदद दी ताकि पूर्व मुख्यमंत्री के घर में एक शौचालय बन सके.
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पूर्णिया के सांसद उदय सिंह का कहना है कि ‘देखिए ये परिवार अपने घर में शौचालय के लिए सरकारी विभागों का चक्कर लगाता रहा है, लेकिन जब वहां भी नहीं मिला तो हमने अपने फंड़ से शौचालय के लिए 51 हजार रुपये दिया है.’बीते 21 सितंबर को जब पटना में अलग-अलग दलों के नेता उनकी जयंती मना रहे थे, तब किसी को इनके परिवार की शायद ही याद रही हो. बीजेपी ने तो इसी मुख्यमंत्री के कार्यक्रम के लिए अमित शाह तक को बुलावा भेजा था, लेकिन इनके नाम पर राजनीति तो याद रही परिवार याद नहीं रहा.
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भोला पासवान शास्त्री के विचार दलितों को लेकर बेहद ही उदार थे. उनके कहना था कि शिक्षा माध्यम से ही दलित अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का मुकाबला कर सकते हैं. उन्होंने मुफ्त की सुविधाओं से ज्यादा, दलितों के लिए मुफ्त शिक्षा की पैरवी की थी. जिससे कि वे अपनी तकदीर खुद लिख सके. पूर्व मुख्यमंत्री के परिवार को देखकर एक कहावत याद आती है ‘पैसों वालों से दूर का रिश्ता भी बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं लोग, ‘अजी जनाब ! यहां तो गरीबों का नाम तक भूल जाते हैं लोग’…Next
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