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विभाजनकारी है अल्पसंख्यक आरक्षण का राजनीतिक दांव

संविधान द्वारा भारत को एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र का दर्जा प्रदान किया गया है. धर्म-निरपेक्ष का सीधा और सरल अर्थ यही है कि भारत की सीमा के भीतर धर्म के आधार पर किसी भी व्यक्ति या समुदाय को विशेष सुविधाएं या अधिकार प्राप्त नहीं होंगे और ना ही धर्म के नाम पर किसी के भी साथ पक्षपात किया जाएगा. सभी नागरिकों को एक समान अपने धर्म का अनुसरण करने और इच्छानुसार उसका निर्वाह करने का अधिकार है.


लेकिन आज वोट-बैंक की कामना भारतीय राजनीति की मौलिक विशेषता और प्रमुख पहचान बन चुकी है. ऐसे में संविधान द्वारा दिए गए निर्देश और विभिन्न नियमों को नजरअंदाज करना अब किसी को भी हैरान नहीं कर सकता.


reservation for minoritiesइस वोट की राजनीति को सशक्त बनाए रखने के लिए हमारी सरकारें विभिन्न पैंतरे तो अपना ही रही हैं लेकिन उन हथकंडों में आरक्षण देने जैसा मसला एक बहुत प्रभावी कारक बन कर उभरा है. संविधान के अनुसार वे लोग जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं उनके लिए आरक्षण सुरक्षित करना सरकारों का दायित्व है. अब संविधान में निर्देशित है तो उसका पालन भी करना ही पड़ेगा लेकिन यह बात भी किसी से छुपी नहीं है कि आरक्षण जैसे अभेदीय पैंतरे का प्रयोग कितना और किस कदर होता है.


लेकिन जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भारत का संविधान किसी भी रूप में आस्था और धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के आरक्षण की अनुमति नहीं देता लेकिन हाल ही में केन्द्र सरकार ने संविधान के इस निर्देश का उल्लंघन करने हुए सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की मंजूरी दी है. सरकार के इस फैसले के अनुसार जनवरी 2012 से सभी सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में अल्पसंख्यकों को 4.5 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा. उन्हें यह सुविधा पूर्व निर्धारित ओबीसी श्रेणी के 27 प्रतिशत में से मिलेगी. इस फैसले के बाद हमेशा से ही सरकार का मुख्य टार्गेट या आकर्षण रहने वाले मुसलमानों को आरक्षण मिलने का रास्ता अब पूरी तरह साफ हो गया है.

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लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि जब संविधान में धर्म और राजनीति को अलग-अलग रखा गया है तो हमारी सरकारें कैसे अल्पसंख्यक होने के आधार पर किसी विशेष धर्म के लोगों को विशेषाधिकार दे सकती हैं?


धर्म के आधार पर आरक्षण देना पूर्णत: असंवैधानिक है. निश्चित तौर पर इस निर्णय से अन्य या फिर वास्तविक जरूरतमंदों को मिलने वाले लाभ और सुविधाओं में कमी आएगी. अगर इन अल्पसंखयकों में से कोई जाति या समुदाय पिछड़ा या असहाय है तो उन्हें आरक्षण देने में कोई बुराई नहीं है लेकिन धर्म के आधार पर किसी को पिछड़ा घोषित करना अपरिपक्वता या स्वार्थ ही दर्शाता है. यह सच है कि भारत की कुछ जातियां या जनजातियां पूरी तरह पिछड़ी और दमित हैं लेकिन धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या के आधार पर आरक्षण जैसा अधिकार देना एक नई और गंभीर बहस छेड़ सकता है.


सभी लोगों के लिए शिक्षा और स्वावलंबन जरूरी है लेकिन किसी धर्म और उसे मानने वालों की संख्या के आधार पर बंटवारा और फिर आरक्षण भारत की एकता और अखंडता को भी प्रभावित कर सकता है. भारत के संविधान में धर्म को एक व्यक्तिगत मसला माना गया है इसलिए उसमें किसी भी प्रकार का राजनैतिक हस्तक्षेप एक अच्छा लक्षण नहीं कहा जा सकता.

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