परंपरागत भारतीय समाज ने भले ही पाश्चात्य देशों से आई आधुनिकता को बड़ी आत्मीयता के साथ स्वीकार कर लिया हो लेकिन आपसी भावनाओं और संबंधों के विषय में हमारी प्राथमिकताएं पहले जैसी ही हैं. अपवादों को छोड़ दिया जाए तो आज भी प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उसके भावनात्मक संबंधों की महत्ता सबसे अधिक है. उसके लिए प्रियजन विशेषकर अपने परिवार के बिना जीवन जीना सहज नहीं हो सकता.
पारिवारिक जनों में जहां प्रेम होता है वहीं थोड़ी बहुत नोंक-झोंक होना भी एक आम बात है लेकिन जब वैवाहिक संबंधों की बात आती है तो वहां दंपत्ति के परस्पर हितों में टकराव होने के कारण कभी-कभार हालात नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं. प्राय: परंपरागत विवाह शैली की प्रधानता होने के कारण महिला-पुरुष एक दूसरे को समझने से पहले ही पति-पत्नी बन जाते हैं जिसके कारण उनकी प्राथमिकताओं और इच्छाओं में पहले से ही मौजूद अंतर स्पष्ट नहीं हो पाता. हालांकि परिवार वालों की पहल और हस्तक्षेप के कारण कई वैवाहिक संबंध टूटने से बच जाते हैं. लेकिन कुछ झगड़ों को सुलझाना परिवार के बस से भी बाहर हो जाता है और अंत में तलाक लेने तक की नौबत आ जाती है.
कहते हैं कोर्ट-कचहरी में भावनाएं काम नहीं आतीं, अदालत का निर्णय पूरी तरह व्यवहारिक होता है. परंतु इस कथन को नकारते हुए अब भारत की अदालतें भी रिश्तों के मामले में संवेदनशीलता बरतने लगी हैं. वह भारतीय समाज में विवाहित जीवन के महत्व को समझते हुए अपने निर्णयों में भावुकता दर्शाने लगी है.
हाल ही में बॉंबे हाइकोर्ट में दायर तलाक की अर्जी पर सुनवाई करते हुए अदालत ने अपनी जिम्मेदारी का परिचय दिया. उल्लेखनीय है कि एक शिपिंग कंपनी में कार्यरत पति का जब पोर्ट-ब्लेयर ट्रांसफर हो गया तो उसकी पत्नी ने अपने पति के साथ पोर्ट-ब्लेयर जाने से मना कर दिया. पत्नी के साथ चलने से मना करने के बाद पति ने तलाक के लिए अर्जी दायर कर दी. लेकिन जब सुनवाई की बात आई तो न्यायाधीश महोदय ने उन्हें रामायण का उदाहरण देते हुए कहा कि सीता अपने पति राम के साथ वनवास जा सकती हैं तो क्या आप अपने पति के साथ पोर्ट-ब्लेयर नहीं जा सकतीं. अदालत का यह वक्तव्य बेहद नारीवादियों, जो नारी की स्वतंत्रता, उसकी इच्छाओं के तथाकथित पक्षधर हैं, को बहस खड़ी करने का एक मौका अवश्य दे सकते हैं, लेकिन अगर भावनात्मक पक्ष की ओर ध्यान दिया जाए तो विवाहित जीवन पति-पत्नी के साथ से ही बनता है और अगर काम के लिए पति को किसी दूसरे शहर जाना पड़ता है तो पत्नी को अपने पति के साथ उस स्थान पर रहने में कोई बुराई नहीं होनी चाहिए. इस मसले पर पत्नी का कामकाजी होना एक अपवाद हो सकता है.
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वहीं तलाक के एक अन्य मसले पर भी कोर्ट का नजरिया कुछ ऐसा ही रहा. तलाक के लिए आए एक दंपत्ति, जिसमें पति की शिकायत थी कि उसकी पत्नी अपने जीवन में इतनी ज्यादा व्यस्त है कि उसे अपने विवाहित जीवन के लिए समय ही नहीं मिलता, को बॉंबे हाइकोर्ट ने तलाक से पहले चार सप्ताह तक साथ रहने की सजा सुनाई. निश्चित तौर पर यह उन लोगों के लिए तो सजा ही होगी जो पहले ही तंग आकर तलाक लेने पहुंच गए थे. लेकिन जब चार सप्ताह पश्चात वह फिर न्यायालय पहुंचे तो उन्होंने अदालत में दायर की अपनी तलाक की याचिका को वापस ले लिया और साथ रहने के लिए राजी हो गए.
उपरोक्त मसलों पर अगर विचार किया जाए तो यह आधुनिक विवाहित जोड़ों की मानसिकता को साफ दर्शाता प्रतीत होता है. प्राय: यही देखा जा रहा है कि जहां पहले पारिवारिक मसले या संबंधियों का अत्याधिक हस्तक्षेप पति-पत्नी के बीच मनमुटाव का कारण बनता था लेकिन अब व्यक्तिगत आकांक्षाएं और प्राथमिकताएं विवाह संबंध में बंधे लोगों को अलग करने में महत्वपूर्ण और बड़ी भूमिका निभा रही हैं.
दो लोगों में स्वभाव भिन्नता होना लाजमी है. यही वजह है कि उन दोनों की प्राथमिकताओं में भी अंतर होता है. प्राय: लोग इस अंतर को महत्व देकर अपने बीच में आई दरार को और बढ़ा देते हैं जबकि उन्हें आपसी भावनाओं के महत्व को समझते हुए एक-दूसरे के साथ को ही अपने जीवन का उद्देश्य समझना चाहिए. वैसे भी पति-पत्नी दांपत्य जीवन के दो पहिए होते हैं, इस गाड़ी को चलाने के लिए उनकी भागीदारी और इच्छाशक्ति का होना बेहद जरूरी है.
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