कई वर्षों तक परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़े रहने के कारण भारत अपेक्षित गति से विकास कर पाने में सक्षम नहीं हो पा रहा है. जिसके परिणामस्वरूप विश्वपटल पर स्वयं को आत्म-निर्भर और सशक्त रूप से स्थापित करने के लिए हमारी सरकारों को कई बड़े इम्तिहानों और बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है. भारतीय अर्थव्यवस्था, आजादी के इतने वर्षों बाद भी पूरी तरह चरमरायी हुई ही है. भले ही हमारी सरकारें लोगों के जीवन स्तर को सुधारने और उन्हें उपयुक्त रोजगार मुहैया कराने का दम भरती हों, लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि हमारी अधिकांश जनसंख्या बेरोजगारी के कारण भूखे पेट सोने और शिक्षा विहीन रहने के लिए विवश है. उसके पास किसी प्रकार की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है. ऐसी परिस्थितियों में हमारी सरकारें, जो गरीबी और बेरोजगारी को जड़ से समाप्त करने के लिए नीतियां बनाती हैं, उनकी सार्थकता कितनी है इस बात का अंदाजा तो स्वत: ही लगाया जा सकता है. बेरोजगारी का आंकड़ा बढ़ते-बढ़ते इतना विकराल और भयावह रूप धारण कर चुका है कि इसका सामना करना हमारे लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है.
हालांकि नब्बे के शुरूआती दशक में निजीकरण और उदारीकरण जैसी नई आर्थिक नीतियों के भारत में प्रदार्पण करने के साथ ही भारत की रोजगार स्थिति को थोड़ा बहुत समर्थन मिला. इन्हीं नीतियों के कारण कई ऐसे उद्योगों का विकास हुआ जिनके कारण बेरोजगारी से संबंधित आंकड़े में कमी देखी गई. आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी, जिन्होंने हमारे युवाओं के जीवनस्तर को सुधारने में काफी सहायता की, भारत में अपने पांव पसारने में सफल रहीं. लेकिन यह विकास केवल शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित रहा है. असली भारत जो ग्रामों में वास करता है, के विकास को उपेक्षित ही रहने दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप गांवों में रोजगार की स्थिति अत्यंत शोचनीय है.
इन हालातों के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब देश का शासन भारतीय नेताओं के हाथ में आया तो उन्होंने औद्योगीकरण और शहरों के विकास को ही अपनी प्राथमिकता समझते हुए विकास संबंधी सभी योजनाएं केवल शहरी जीवन पर ही केंद्रित रखीं. उनकी योजनाओं में ग्रामों के विकास और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के जीवन स्तर को सुधारने के लिए कोई महत्वपूर्ण स्थान सुनिश्चित नहीं किया गया.
भारत एक विशाल जनसंख्या वाला राष्ट्र है. जनसंख्या जितनी तेजी से विकास कर रही है, व्यक्तियों का आर्थिक स्तर और रोजगार के अवसर उतनी ही तेज गति से गिरते जा रहे हैं. भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए यह संभव नहीं है कि वह इतनी बड़ी जनसंख्या को रोजगार दिलवा सके. रोजगार की तलाश में दिन-रात एक कर रहे व्यक्तियों की संख्या, साधनों और उपलब्ध अवसरों की संख्या से कहीं अधिक है. यही कारण है कि आज भी अधिकांश युवा बेरोजगारी में ही जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हैं.
बेरोजगारी से जुड़ा मसला केवल बढ़ती जनसंख्या तक ही सीमित नहीं है. हमारी व्यवस्था और उसमें व्याप्त कमियां भी इसके लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं. भ्रष्टाचार ऐसी ही एक सामाजिक और नैतिक बुराई है, जिसका अनुसरण हमारी सरकारें और व्यवस्था बिना किसी हिचक के करती हैं. पैसे के एवज में अवसरों की दलाली करना या भाई-भतीजावाद के फेर में पड़ते हुए अपने संबंधियों को स्थान उपलब्ध करवाना कोई नई बात नहीं, बल्कि हमारी सोसाइटी की एक परंपरा है. जिसका कुप्रभाव योग्य व्यक्तियों और उनकी काबिलियत पर पड़ता हैं. परिणामस्वरूप कई युवा विवश होकर अपने परिवार के लिए अनैतिक कृत्यों में लिप्त हो जाते हैं.
इतना ही नहीं विकास और औद्योगीकरण के नाम पर हमारी कल्याणकारी सरकारें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व बड़े पूंजीपतियों के लिए गरीब खेतिहर किसानों से बहुत थोड़े मूल्य पर भूमि का अधिग्रहण करने से भी पीछे नहीं हटतीं. उनका कहना यह है कि अधिग्रहित भूमि बंजर है, जबकि वास्तविकता यह है कि जो भूमि उस किसान और उसके पूरी परिवार को रोजगार उपलब्ध करवाती थी, वह बंजर कैसे हो सकती है.
हमारी सरकारें यह आश्वासन देती हैं कि उद्योग की स्थापना हो जाने के बाद किसानों, जिनकी भूमि अधिग्रहित की गई है, के परिवार में से एक व्यक्ति को उसी उद्योग में नौकरी दी जाएगी. इसके विपरीत होता यह है कि उद्योग लग जाने तक किसान मुआवजे की राशि से परिवार का पालन-पोषण करता है और जब उसे किसी भी प्रकार की नौकरी नहीं मिलती तो गरीबी और तंगहाली के जीवन से मुक्ति पाने के लिए वह आत्महत्या के लिए विवश हो जाता है.
बढ़ती बेरोजगारी की समस्या सीधे रूप से भ्रष्टाचार से जुड़ी है. भ्रष्टाचार जितनी तेजी से फल-फूल रहा है, रोजगार की मात्रा कम होती जा रही है. सरकार ग्रामीण इलाकों में लोगों के जीवन स्तर को उठाने के लिए रोजगार संबंधित विभिन्न योजनाएं चला रही है, सरकारी और निजी संस्थानों में भर्ती को पारदर्शी बनाने की कोशिश कर रही है. लेकिन वास्तव में यह सभी प्रयास खोखले और भ्रम पैदा करने वाले हैं.
भारत में बढ़ती बेरोजगारी को, जनसंख्या, बड़े पैमाने पर व्याप्त अशिक्षा और भ्रष्टाचार समान रूप से बल प्रदान कर रहे हैं. इसी कारण देश में आपराधिक वारदातों से संबंधित आंकड़ा भी दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. अगर संजीदा होकर इन सभी कारकों में से एक को भी घटाने का प्रयास किया जाए, तो बेरोजगारी की समस्या को समाप्त करना आसान हो सकता है.
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