ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने दिखाए वास्तविक हालात
भारत की छवि बरसों पहले से एक कृषि-प्रधान देश की रही है. देश में अधिकतर लोग अपना घर खेती के सहारे चलाते थे. कभी जमीनें इतनी थीं कि खेत लहलहाते थे और आदमी को जीने के लिए किसी और साधन पर निर्भर नहीं रहना पड़ता था. लेकिन फिर क्रांति आई या यों कहें कि बाढ़ आई. औद्योगिक क्षेत्र और जनसंख्या का जैसे विस्फोट हुआ. रोजगार के नए साधन आए. जो अमीर थे उन्होने मौके को भांपते हुए और अमीर बन जाने की सोची और हमारे गांव इस तेज रफ्तार के साथ कदम से कदम न मिला सके. नतीजा हुआ शहर तो आबाद हो गए लेकिन गांव बर्बादी की तरफ चले गए. लेकिन अमीरों के पांव यहीं तक सीमित न रहे, उन्होंने और अमीर बनने के लिए गांवों को और पीछे धकेलना शुरु कर दिया, खेती की जगहों पर मॉल बनने लगे. अमीरों की चक्की में गरीब पिसने लगे. फिर इसी बीच राजनीति भी आ गई. मरतों को जिंदा करने का वादा कर वोट बैंक भरने वाले यह असुर किसी के न हुए. सरकार ने हजारों नीतियां बनाई ताकि गरीबों को बचाया जा सके, उन्हें भूख और गरीबी से बचाने के लिए हर भरसक कोशिश की. पर भारत में सरकारी अफसरशाही के तले यह सभी नीतियां और कार्यक्रम धरे के धरे रह गए.
गरीबी का सबसे बड़ा घाव होता है भूख और उससे भी भयावह होता है भूख से मर जाना. भूख जैसी जटिल विपदा से कमोवेश पूरी दुनिया जूझ रही है, लेकिन विकासशील देश इसकी सबसे ज्यादा मार झेल रहे हैं. भारत भी उन देशों में से एक है जहां प्रतिवर्ष भूख से हजारों लोगों की मौत होती है.
अभी हाल ही आई दुनिया भर में कुपोषण की हालत पर निगाह रखने वाली संस्था-ग्लोबल हंगर इंडेक्स की ताजा रिपोर्ट भारत में भुखमरी का आंकड़ा बयां करते हुए हमारी शासन प्रणाली पर करारा वार करती है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स की नवीनतम रपट के अनुसार दुनियां भर में सबसे अधिक कुपोषित बच्चे भारत में हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि महिलाएं भी कुपोषण से ग्रस्त हैं. भुखमरी से लड़ने के मामले में 84 देशों की सूची में भारत को 67वां स्थान मिलना यह स्पष्ट कर देता है कि हमारे नीति निर्धारक आठ-नौ प्रतिशत की विकास दर पर कुछ ज्यादा ही इतरा रहे हैं, शायद यही कारण है कि उन्हें कुपोषित और भुखमरी की कगार पर खड़ी आबादी की परवाह नहीं.
वैसे तो ग्लोबल हंगर इंडेक्स में कई तथ्य भारत को लज्जित करने वाले हैं, लेकिन सबसे लज्जाजनक यह है कि वह भुखमरी से पार पाने के मामले में पाकिस्तान और अन्य अनेक निर्बल एवं विपन्न माने जाने वाले देशों से भी पीछे है.
लेकिन इन सब के लिए हमारे नेता ऐसा कोई बहाना नहीं बना सकते कि भारत एक विशाल देश है और उसकी आबादी एक अरब से भी ज्यादा है. यह बहाना इसलिए कारगर नहीं होने वाला, क्योंकि सबसे अधिक आबादी वाला चीन हमसे आगे है.
कहने को तो हम गरीबी दूर करने के लिए कई योजनाएं चला रहे हैं. लेकिन तथ्य यह है कि वे कागजों पर ही अधिक चल रही हैं. निर्धनता, कुपोषण, अशिक्षा, भुखमरी आदि दूर करने के लिए जो जनकल्याणकारी योजनाएं चल रही हैं वह सभी सिर्फ उन्हीं के लिए फायदेमंद हैं जिन्हें इसे चलाना था. भारतीय नेता और सरकार इससे अच्छी तरह परिचित हैं कि जनकल्याणकारी योजनाएं भ्रष्टाचार और अव्यवस्था से ग्रस्त हैं और भ्रष्ट नेता और अफसर इसके जरिए अपनी जेबें भरने में लगे हैं, लेकिन वे प्रशासनिक तंत्र में बुनियादी सुधार करने के लिए भी तैयार नहीं. सत्ता के महत्वपूर्ण पदों पर बैठे नेता यह तो स्वीकार करते हैं कि सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार व्याप्त है, लेकिन वे प्रशासनिक तंत्र को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के लिए तैयार नहीं.
भारत में जन वितरण प्रणाली भी बुरी तरह भ्रष्टाचार में लिप्त है. इस प्रणाली से ही भारत का गरीब वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होता है. सरकारी कामचोरी का ही नतीजा है कि हजारों टन अनाज ऐसे ही सड़ रहा है. इस बात से हमारी न्यायपालिका उतनी नाराज हुई कि सुप्रीम कोर्ट ने 27 जुलाई, 2010 को कह ही दिया कि जिस देश में हजारों लोग भूखे मर रहे हों, वहां अन्न के एक दाने की बर्बादी भी अपराध है. इसी तरह 12 अगस्त, 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा कि अनाज सड़ाने के बजाए केंद्र सरकार गरीब और भूखे लोगों तक इसकी आपूर्ति सुनिश्चित करे. इसके लिए केंद्र हर प्रदेश में एक बड़ा गोदाम बनाने की व्यवस्था करे. जाहिर तौर पर देश की जमीनी स्थिति को अदालत समझ रही थी, किंतु हमारी सरकार इस सवाल पर गंभीर नहीं दिख रही थी. यहां तक कि हमारे कृषि मंत्री अदालत के आदेश को सुझाव समझने की भूल कर बैठे, जिसके चलते अदालत को फिर कहना पड़ा कि यह आदेश है, सलाह नहीं है. जबकि हमारी सरकार तब तक 6.86 करोड़ का अनाज सड़ा चुकी थी. आज कुपोषण के हालात हमारी आंखें खोलने के लिए काफी हैं.
इन सब के साथ खाद्य सुरक्षा गारंटी जो कि इस बात की गारंटी लेता था कि कोई गरीब खाने की वजह से नहीं मरेगा भी बिलकुल फेल है. इन सब के बीच जब तक शासन प्रणाली पूरी तरह भ्रष्टाचार से मुक्त नही होती तब तक ऐसी हजारों नीतियां फेल ही हैं. साथ ही ऐसी नीतियां बनाने की जरुरत है जो किसानों पर केन्द्रित हों.
कुछ जरूरी उपाय जिन्हें तुरंत किया जाना आवश्यक है जैसे केंद्र और राज्य सरकारों को अपने-अपने स्तर पर इस समस्या के कारगर निदान के बारे में सोचना चाहिए. किसानों की आय में इजाफा, फसल बीमा को और कारगर बनाने और कृषि क्षेत्र से जुड़े हर पहलू में गुणात्मक वृद्धि करने के लिए एक रोड मैप का होना विकास के लिए जरूरी होगा. सबसे जरूरी है खाद्यान्न संकट से निपटने के लिए खाद्यान्न सुरक्षा नीति की दिशा में सकारात्मक सोच को विकसित करना. इसके लिए खेती और किसानों के हितों और जरूरतों पर ध्यान देने की आवश्यकता है.
लेकिन दीमक लगी हुई लकड़ी तब तक सही नहीं हो सकती जब तक या तो उसे बदला ना जाए या फिर उसमें सही से दवा न लगाई जाए. सरकार के साथ अब जनता को भी इस तरफ ध्यान देना होगा. जहां कृषि से हमें खाद्यान में निर्भरता मिलेगी वही युवाओं को इस क्षेत्र में कॅरियर संबंधित काफी उम्मीदें हैं.
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