जब बरसों से चली आ रही परंपराएं वर्तमान समय को ध्यान में रखते हुए प्रासंगिक नहीं रहतीं तो उन्हें संशोधित करना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है. और शायद कोई भी जागरुक समाज जो अपनी प्रगति को लेकर गंभीर रहता है, वह कभी इन खोखली और बेमानी मान्यताओं को नकारने में संकोच नहीं करता. भारत मूल रूप से एक ग्रहणशील और स्वभाव से लचीला राष्ट्र रहा है किंतु समय-समय पर झेले गए अनेक झंझावातों के कारण यहॉ पर कई सामाजिक नियमों व संस्थाओं में जटिलता आ गयी.
वैसे तो भारतीय समाज में परंपराएं मानव हित के लिए बनाई गईं लेकिन बदलते वक्त के साथ उनमें परिवर्तन नहीं हो सका फलस्वरूप उन्होंने एक रुढ़ि का रूप धारण कर लिया. आधुनिक समाज में ऐसी किसी भी परंपरा के लिए कोई स्थान नहीं हैं जो रूढ़ हो. इन्हीं में से एक है जातिप्रथा जो एक ऐसी व्यवस्था है जिसके आधार पर एक ही समाज में रहते हुए मनुष्यों को उसकी जाति के आधार पर ऊंचे-नीचे जैसी कई श्रेणियों में विभाजित किया जाता है. इसका भीषण रूप इस कदर समाज पर हावी था कि अपने से छोटी जाति वालों के साथ बैठना उठना तक भी समाज के ठेकेदारों की नज़र में पाप माना जाता था. और ऐसा करने वालों के साथ सख्त व्यवहार कर उन्हें बिरादरी से ही निष्कासित कर दिया जाता था.
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लेकिन समय बदलने के साथ-साथ जड़ हो चुकी ऐसी परंपराओं और रीति-रिवाजों में आ रहे बदलावों को भी निश्चित तौर पर देखा जा सकता है. जिसके परिणामस्वरूप इनकी सामाजिक मान्यताओं में भी कमी आने लगी है.
विवाह जिसे हमारे समाज में एक ऐसी संस्था का दर्जा दिया गया है जो केवल एक महिला और पुरुष को ही आपस में नहीं जोड़ती बल्कि दो परिवारों को भी एक सूत्र में पिरोने का कार्य करती है. विवाह संबंधी कोई भी निर्णय परिवार के बड़े-बुजुर्ग अपनी जाति और गोत्र को ध्यान में रखकर ही लिया करते थे और इसमें विवाह योग्य युवक और युवतियों द्वारा किसी भी प्रकार का कोई दखल स्वीकार नहीं किया जाता था.
हो सकता है ऐसी मान्यताएं उस युग में अत्यंत उपयोगी रही हों क्योंकि पहले लड़कियों को केवल घर की चारदीवारी तक ही सीमित रखा जाता था और स्त्री शिक्षा का महत्व भी शून्य था. इस कारण वह अपने अच्छे-बुरे को नहीं समझती थीं और पूर्ण रूप से अपने परिवार पर ही निर्भर रहती थीं.
लेकिन आज परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं. आज महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं, शिक्षा के नए-नए आयामों को स्थापित कर रही हैं. एक साथ पढ़ने और काम करने के परिणामस्वरूप युवक और और युवतियों में भावनात्मक लगाव पैदा हो जाते हैं, जो आगे चलकर प्रेम संबंधों का रूप ले लेते हैं. भले ही दोनों के बीच जातिगत अंतर हो लेकिन वह इसे नज़रअंदाज कर विवाह करने का निर्णय ले लेते हैं. और अधिकतर देखा गया है कि अपने बच्चों के प्रेम-विवाह को उनके परिवार का भी समर्थन मिलता है. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि लोगों की मानसिकता अब विस्तृत होने लगी हैं, जिसकी वजह से जातीय अंतर की महत्ता कम और बच्चों की पसंद-नापसंद की महत्ता ज्यादा बढ़ने लगी है. साथ ही जहां पहले परिवार के बड़े, तानाशाह की भांति अपना आदेश बच्चों पर थोप देते थे, वे आज अपने बच्चों की भावनाओं को समझ, जीवनसाथी के प्रति उनकी अपेक्षाओं को महत्व देते हैं.
लेकिन इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि शहरों में भले ही आज विवाह के संदर्भ में जाति का महत्व गौण हो चला है. लेकिन गांवों और पिछड़े क्षेत्रों में आज भी शादी-ब्याह से संबंधित कोई भी निर्णय जाति को ध्यान में रखकर ही लिया जाते हैं और प्रेम-विवाह जैसी किसी भी बात को सामाजिक स्वीकार्यता नहीं मिल पाती. उचित शिक्षा की कमी और आधुनिक परिवेश से दूरी गांवों के लोगों को अभी भी रूढ़िवादी सोच रखने के लिए विवश किए हुए है, जिसका खामियाजा दो अंतरजातीय प्रेमियों को भुगतना पड़ता है. उनके पास केवल दो ही विकल्प रह जाते हैं, या तो वे समाज और अपने खुद के परिवार के विरुद्ध जाकर विवाह करें या फिर अपनी इच्छाओं को दबाते हुए परिजनों के सामने समर्पण कर दें. लेकिन अगर वह विवाह कर लेते हैं तो अंतरजातीय विवाह करने वालों को रूढ़िवादी समाज द्वारा सजा का पात्र समझा जाता है. तमाम जगहों पर इस हेतु खाप पंचायतों का उदय हुआ है, जो अपने विवेकानुसार तानाशाह की भूमिका निभाते हुए उन्हें अलग कर देती हैं, समाज से उनका बहिष्कार करने की सजा देती हैं और या जान से मारने का फरमान जारी कर देती हैं. लेकिन सबसे गंभीर स्थिति तब पैदा होती है जब अपने सम्मान को बचाने के लिए परिवार वाले स्वयं ही अंतरजातीय विवाह करने वाली अपनी संतान को मृत्यु प्रदान कर देते हैं.
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यद्यपि भारतीय संविधान के अनुसार भारत का हर वयस्क नागरिक अपनी पसंद से विवाह करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन जाति और वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत समाज द्वारा इस तरह की स्वतंत्रता प्रदान नहीं की गई है. यहां केवल जाति के अंदर विवाह करने का सिद्धांत ही मान्य है. हालांकि अब पश्चिमीकरण और आधुनिकता से प्रभावित होकर वर्षों से चली आ रही ऐसी सड़ी-गली मान्यताओं को हमारा युवा वर्ग चुनौती देने लगा है. युवा जाति व धर्म के बंधनों से मुक्त होकर अपनी इच्छा और पसंद से विवाह करने के अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं.
यद्यपि पाश्चात्य देशों की देखा देखी भारतीय समाज नई-नई व्यवस्थाओं को ग्रहण कर रहा है लेकिन आज भी भारतीय लोगों के जीवन में विवाह एक अहम भूमिका निभाता हैं. विवाह दो मनुष्यों को उम्र भर के लिए एक साथ जोड़ देता हैं और विवाह संबंधी कोई भी निर्णय लेते समय जरा सी भी नासमझी गंभीर स्थितियां पैदा कर सकती है. इसलिए अकसर यह देखा गया है कि भले ही प्रेम-विवाह करने वाले दंपत्ति एक दूसरे को पहले से जानते हों, एक दूसरे की पसंद-नापसंद को समझते हों लेकिन मुश्किल हालातों में उन्हें परिवार का समर्थन नहीं मिल पाता. इसके उलट अगर विवाह परिवार की रजामंदी और उनकी पसंद से किया गया हो तो परिस्थितियां चाहे कैसी भी हों, उनका परिवार उन्हें पूरा सहयोग देता है. इसके अलावा पारिवारिक सदस्यों में भावनात्मक लगाव जैसे गुणों का विकास भी परस्पर सहयोग की भावना को बढ़ाता है. जिसके परिणामस्वरूप पारिवारिक सदस्य एक-दूसरे की खुशी और गम को अपना लेते हैं, और किसी भी प्रकार की मदद के लिए तत्पर रहते हैं.
उपरोक्त के आधार ये स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि भविष्य में किसी भी प्रकार की नकारात्मक परिस्थितियों का सामना ना करना पड़े इसके लिए जरूरी है कि विवाह संबंधी कोई भी निर्णय लेते समय पूरी सावधानी बरती जाए.
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