स्नेहा की दादी हमेशा घर में किसी न किसी बात को लेकर उलझती रहती थी, हर बात में कमी निकालना, कोई घर में जल्दी आ जाए तब बड़बड़ाना और जब कोई देरी से आए तो भी नाराज होना. वो घर में किसी मेहमान को पसंद नहीं करती थी लेकिन एक दिन जब मैं स्नेहा की दादी से मिली तो उन्होंने बहुत अच्छे से बात की, अब मैं जब भी स्नेहा के घर जाती हूं उसकी दादी से मिलना नहीं भूलती. वो भी मुझे बार-बार पूछती है और स्नेहा को मुझे बुलाने के लिए कहती है. स्नेहा और उसके घर वाले दादी में आए इस बदलाव को देखते हुए बेहद हैरान है. एक रोज उसने मुझसे पूछ ही लिया कि ‘आखिर तू कहती क्या है दादी को’ मैंने उसके सवाल का जवाब देने से पहले एक बात पूछना जरूरी समझा ‘तू अपनी दादी के साथ कितना वक्त बिताती है रोज?’
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कुछ देर सोचकर वो धीमी आवाज में बोली ‘यार टाइम ही कहां मिलता है’ फिर मैंने पूछा महीनें में कितनी बार मिलती हो दादी से ? इस बार उसने चुप रहना ही बेहतर समझा. उसकी चुप्पी को समझते हुए मुझे देर नहीं लगी. मैंने उसे समझाते हुए कहा ‘ मैंने दादी से ज्यादा बातें नहीं की, बस उनकी बातों को सुना. इस दौरान उन्होंने कई यादगार किस्सों को मुझसे शेयर किया. दादी को इस उम्र में अकेलापन सबसे ज्यादा महसूस होता है. जब कोई जल्दी आता है तो किसी के पास उनके लिए वक्त नहीं होता और देरी से आने पर तो कोई उनके साथ बैठने के बारे में सोचता भी नहीं इसलिए वो अपनी दबी हुई कुंठा को सभी पर चिल्लाकर या बड़बड़ाकर निकालती है.
ये किस्सा आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में हर घर में आम हो चला है जहां पर लोगों के पास अपने बुजुर्गों के लिए वक्त ही नहीं है. लेकिन आप खुद सोचिए एक दिन हमें भी इस पड़ाव से गुजरना है, आज जब कोई एक खास दोस्त हमसे नाराज हो जाता है या हमसे दूर चला जाता है तो हम बेचैन हो उठते हैं. इसी तरह अपने बड़े-बुजुर्गो के बारे में एक बार सोचिए हम सभी इनके जीवन में खास हैं और अगर हम इन्हें अनदेखा करेगें तो ये लोग कितना अकेला महसूस करेगें?
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आपने बचपन में मुंशी प्रेमचंद की लिखी हुई कहानी ‘बूढ़ी काकी’ जरूर पड़ी होगी उस कहानी में बूढ़ी काकी की मनोस्थिति को एक छोटे बच्चे की तरह चित्रित किया गया है. जिसमें वो रोज बच्चों की तरह जिद करती है पर उन्हें सुनने वाला कोई नहीं है. दुनियाभर के आडंबर और खोखले रीति-रिवाजों को महत्व देते हुए घर के लोग एक जीते-जागते इंसान बूढ़ी काकी को अनदेखा करते हैं और कहानी के अंत में अपने किए का पछतावा करते हुए बूढ़ी काकी की बहू खुद को कोसने पर मजबूर हो जाती है. वहीं कहानी का अंत पढ़ते हुए हम में से अधिकतर लोगों की आंखें नम जरूर हुई होगी लेकिन बातों को भूलना तो हमारी सबसे बड़ी विशेषता बन चुकी है. इसलिए ऐसे संदेशों को चंद पलों में भूल जाने में ही हम अपनी भलाई समझते हैं.
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आपने कभी गौर किया होगा जाने-अनजाने कई लोग बस, दुकान, कैंटीन, मेट्रो या फिर यूं ही किसी सड़क मिलते हैं और जान पहचान हो जाती है ऐसे में किसी एक दिन भी न मिल पाने की सूरत में अगले दिन मिलने पर हम उस शख्स की खैरियत जरूर मालूम करते हैं तो जरा सोचिए कुछ दिनों में ही हमें राह चलते अजनबियों से इतना जुड़ाव हो जाता है तो फिर हमारे अपने बड़ों के लिए हमारे पास वक्त क्यों नहीं है या फिर वक्त की अंधी दौड़ में हमें अपने एक मोबाइल फोन खो जाने का डर है लेकिन हमने कभी उनके खोने की कल्पना तक नहीं की होती. क्योँकि किसी इंसान को खोने के डर से ही हमारा उस व्यक्ति कर प्रति लगाव बढ़ता है. तो खुद में उनके खो जाने या दूर जाने का डर जगाइए, कल्पना कीजिए एक पल के लिए और याद कीजिए बचपन में उनके साथ बिताई खुशनुमा यादों को उसके बाद आपको उनके अकेलेपन का अनुभव होगा. आपके और उनके बीच जो भी मतभेद है एक बार सब कुछ भुलाकर उन्हें गले से लगाकर तो देखिए, क्या पता उनसे गले लगते ही मन की कितनी ही गाठें ढीली पड़ जाए और आपको एक दोस्त और मिल जाए. वो दोस्त जो आपको जन्म के पहले दिन से जानता है या फिर आपसे उम्र और अनुभव में बड़ा होकर भी आज भी दिल से बच्चा है. तो क्यों न दिन इन नए दोस्तों के करीब आने की शुरुआत आज अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस से ही हो और जिन्दगी भर कायम रहे…Next
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