भारतीय परिप्रेक्ष्य में विवाह की महत्ता इसी बात से समझी जा सकती है कि भले ही विवाह का संबंध महिला-पुरुष से हो लेकिन विवाह का निर्धारण, आयोजन और उसे मान्यता देना समाज और परिवार के हाथ में होता है. यही वजह है कि विवाह से पहले ना तो पराई स्त्री और पुरुष के मिलन को स्वीकार किया जाता है और ना ही परिवार और समाज की मर्जी के विरुद्ध विवाह करने या विवाह किए बगैर साथ रहने को ही सामाजिक मंजूरी प्रदान की जाती है.
हालांकि बदलती मान्यताओं के कारण आधुनिकता की ओर अग्रसर भारत में भी विदेशी रीति-रिवाजों को शामिल किया जाने लगा है जिसके परिणामस्वरूप जहां पहले भारत में सिर्फ परंपरागत तरीके से ही विवाह प्रणाली को स्वीकार किया जाता था वहीं अब लव मैरेज जैसे संबंध भी बड़े पैमाने पर देखे जा सकते हैं, जिसमें परिवार की नहीं बल्कि संबंधित महिला-पुरुष की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण होती है.
यहां तक तो ठीक था लेकिन जैसे-जैसे भारत में आधुनिकता का दायरा बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे विवाह के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगने शुरु हो गए हैं क्योंकि लव मैरेज सिस्टम के बाद अब लिव-इन रिलेशनशिप जैसे संबंधों ने भी हमारे समाज में अपनी पकड़ बनानी शुरु कर दी है, जिनके अनुसार शादी किए बगैर भी महिला-पुरुष एक ही छत के नीचे पति-पत्नी की भांति रहते हैं. जाहिर है भारत जैसे देश में जहां शादी से पहले एक दूसरे से मिलना तक गलत माना जाता है वहां लिव-इन रिलेशनशिप जैसे संबंध हमारी सभ्यता और परंपरा के अनुसार ‘पाप’ की ही श्रेणी में आएंगे. लेकिन अफसोस न्यायिक दृष्टि से यह लिव-इन रिलेशनशिप ना तो पाप माने जा सकते हैं और ना ही इन्हें अपराध कहा जा सकता है क्योंकि यह दो लोगों का निजी मसला होता है. अब इसे पंरपरागत भारतीय समाज पर कुठाराघात कहें या फिर खुली मानसिकता लेकिन भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि लिव-इन संबंध किसी तरह का अपराध नहीं है और ऐसे संबंधों में रहने वाली महिलाओं और जन्म लेने वाले बच्चों के हितों की रक्षा के लिए कानून बनाए जाने की जरूरत है.
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के.एस. राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पीठ ने एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए लिव-इन संबंधों को वैवाहिक संबंधों की प्रकृतिके दायरे में लाने के लिए दिशानिर्देश तय किए. सुप्रीम कोर्ट के अनुसार किसी भी कारणवश जब लिव-इन संबंध विवाहित संबंधों में परिवर्तित नहीं हो पाते तो इसका सीधा खामियाजा महिला और जन्में या अजन्में बच्चे पर ही पड़ता है इसलिए भले ही समाज ऐसे संबंधों को स्वीकार ना करे लेकिन लिव-इन संबंध पूरी तरह व्यक्तिगत मामला है.
लिव-इन के इतिहास पर नजर डाली जाए तो वैश्वीकरण और उदारीकरण जैसी नई आर्थिक नीतियों के भारत में आगमन के पश्चात विदेशों के तर्ज पर भारत में भी संबंधों के टूटने-बिखरे का सिलसिला शुरू हो चुका है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण लिव-इन रिलेशनशिप जैसे संबंध हैं. मुंबई, दिल्ली, बंगलुरु जैसे महानगरों में तो वैसे भी लिव-इन में रहते जोड़े आसानी से देखे जाते हैं लेकिन अब छोटे शहरों में भी विवाह पूर्व संबंध स्थापित करना या साथ रहने जैसी घटनाएं विकसित होने लगी हैं. न्यायिक दृष्टि से भले ही यह सब सामाजिक बदलाव का नतीजा हो लेकिन सच यही है कि ऐसे संबंध बदलाव नहीं बल्कि भारतीय युवाओं में भटकाव की स्थिति पैदा कर रहे हैं.
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