वे मुस्काते फूल,
नहींजिनको आता है मुर्झाना।
वे तारों के दीप,
नहीं जिनको भाता है बुझ जाना।
वे नीलम के मेघ,
नहीं जिनको है घुल जाने की चाह।
महादेवी वर्मा: स्त्री छाया नहीं पुरुष की संगिनी है
छायावाद की प्रमुख स्तंभ, सरल सौंदर्य की प्रेमी, विरह और वेदना को स्वर देने वाली महादेवी वर्मा, जिन्होंने रहस्यमयी अध्यात्म चेतना को जागृत करने का प्रयास किया, की आज पुण्यतिथि है. यूं तो महादेवी वर्मा ने तरल और सरल कृतियों में अपने विचार और जीवन की दिशा को बखूबी दर्शाया है लेकिन उनका लेखन पूरी तरह समाजकेन्द्रित, तटस्थ और पूरी तरह निष्पक्ष है. अर्थात महिला होने के बावजूद उन्होंने कभी महिलाओं की उस तरह से पैरोकारी नहीं की जिस तरह आजकल नारी के अधिकारों, उसकी स्वतंत्रता से जुड़ी चर्चाएं हो रही हैं. वे नारी जीवन की विडम्बनाओं के लिए पुरुषों को ही दोषी नहीं ठहरातीं, बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से वह महिलाओं को भी समान रूप से उत्तरदायी ठहराती रही हैं.
महादेवी वर्मा का यह मानना था कि “समस्या का समाधान समस्या के ज्ञान पर निर्भर करता है और यह ज्ञान ऐसे व्यक्ति की अपेक्षा करता है जो इसे समझ सके, अतः अधिकार के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी भी होना चाहिए और सामान्यतः भारतीय नारी में इसी विशेषता का अभाव मिलता है’’.
छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा के अनुसार समाज की पूर्णता हेतु पुरूष एवं नारी के स्वतंत्र व्यक्तित्व जरूरी होते हैं. उनकी दृष्टि में नारी को सिर्फ पुरुष की परछाई या छाया मात्र मान लेना संपूर्ण नारी जाति के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है. पौराणिक कथाओं की नायिकाएं जैसे सीता, द्रौपदी, यशोधरा आदि जैसी स्त्रियों के व्यक्तित्व की चर्चा करते हुए महादेवी ने लिखा था कि “महाभारत के समय की कई स्त्रियां अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व तथा कर्तव्यबुद्धि के लिए स्मरणीय रहेंगी, उनमें से प्रत्येक संसार पथ में पुरुष की संगिनी रही है सिर्फ छाया मात्र नहीं.’’
महादेवी वर्मा सामाजिक बंधनों को वैयक्तिक जीवन के विकास में बाधक मानती थीं. उन्होंने नारियों को पुरुषोचित अनुकरण वृत्ति को उचित नहीं माना क्योंकि उनका मानना था कि इससे सामाजिक श्रृंखला शिथिल तथा व्यक्तिगत बंधन और संकुचित होते हैं. इसीलिए वे भारतीय समाज में नारी की दयनीय स्थिति के लिए नारी के अर्थहीन अनुसरण और अनर्थमय अनुकरण को जिम्मेदार ठहराती रही हैं.
महादेवी वर्मा के अनुसार पुरुष के अन्धानुकरण ने स्त्री के व्यक्तित्व को अपना दर्पण बनाकर उसकी उपयोगिता को सीमित कर ही दी, साथ ही इस धारणा ने समाज को भी अपूर्ण बना दिया. दोनों की तुलना करते हुए वह कहती हैं कि पुरुष समाज का न्याय है तो स्त्री दया. पुरुष प्रतिशोधमय क्रोध है तो स्त्री क्षमा. अगर पुरुष शुष्क कर्त्तव्य है तो स्त्री सरस सहानुभूति और पुरुष बल है तो स्त्री हृदय की प्रेरणा. इस तरह उनकी दृष्टि में स्त्री-पुरुष ना सिर्फ प्राकृतिक तौर पर एक-दूसरे के पूरक थे बल्कि सामाजिक तौर पर दोनों को ही एक दूसरे की जरूरत थी, एक के बिना दूसरा अधूरा ही था.
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