यह समझना बेहद कठिन है कि क्यों भारतीयों के लिए अंतिम संस्कार इतना मायने रखता है. जैसे ही उम्र ढलने लगती है भारतीयों के मन में यह चिंता बलवती होने लगती है कि मृत्यु के बाद उन्हें मुखाग्नि कौन देगा? क्या उनका अंतिम संस्कार रिती-रिवाज से संपन्न हो पाएगा. ऐसे में आश्चर्य नहीं की भारत में किसी के अंतिम संस्कार में शामिल होने को बेहद पुण्य का काम माना जाता है. पर ओडिशा के एक गांव में बेहद अजीब घटना घटी. यहां एक बुजुर्ग महिला की मृत्यु के बाद कोई भी उसके लाश को हाथ लगाने को तैयार नहीं था.
महिला को कोई संक्रामक बीमारी नहीं थी कि गांव के लोग उसकी लाश छूने से कतराए. अगर कोई बीमार था तो वे थे इस गांव के लोग जिन्हें नफरत करने की बीमारी थी. गांव के लोग इस बुजुर्ग महिला से इस कदर नफरत करते थे कि उन्हें इसकी लाश तक छूना गंवारा न था. आखिर ऐसा क्यों?
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ओडिशा के बारगढ़ जिले का खारमुंदा गांव एक आम भारतीय गांव की तरह ही था. सच तो यह है कि कोई भी गांव, शहर या देश खास नहीं होता वहां के निवासियों के अच्छे काम ही इसे खास बनाया करते हैं. तो इस साधारण से गांव में एक साधारण सी बुजुर्ग महिला रहती थी, बिष्नु प्रिया नाईक. 75 वर्षिय बिष्नु प्रिया का दोष यह था कि उसकी कोई संतान नहीं थी और उसके पति की मृत्यु अरसा पहले हो चुकी थी. बिष्नु प्रिया का दुसरा दोष था कि उसने अपने जैसे ही एक बुजुर्ग और असहाय आदमी को अपने घर में आश्रय दे रखा था. इस महिला की यह खता गांव वालों को इतनी नागवार गुजरी की उसकी मृत्यु के बाद कोई भी उसके लाश को हांथ तक लगाने को तैयार नहीं था. पर फिर घटी इस साधारण से गांव में एक असाधारण घटना.
इंद्रजीत डोरा उसी गांव का एक आम निवासी था. 45 वर्षीय इंद्रजीत समाजसेवी होने और स्वंयसेवी संस्था चलाने जैसे बड़े-बड़े दावों से कोसों दूर हैं पर गांव वालों के तमाम विरोध और असहयोग के बावजूद इंद्रजीत ने इस बुजुर्ग महिला के लाश को अकेले ही अपने मोटरसाईकल पर लादकर ले गए और उसका अंतिम संस्कार किया. जब इंद्रजीत बुजुर्ग महिला का अंतिम संस्कार कर वापस लौटे तब गांव वालों को अपनी गलती का एहसास हुआ. इंद्रजीत के आगे सबका सर शर्म से झुका हुआ था. गांव में ही खाद की दुकान चलाने वाले इंद्रजीत की चर्चा अब पूरे जिले में हो रही है.
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एक स्थानीय टीवी चैनल से बात करते हुए इंद्रजीत ने कहा कि, “जो व्यक्ति उस महिला के साथ रहता था वह बेहद बुजुर्ग और आसक्त होने के कारण अंतिम संस्कार के प्रक्रियाओं को पूरा करने में असमर्थ था. उसने मुझसे यह काम करने के लिए कहा था.”
हो सकता है उस गांव में कुछ अन्य लोग भी होंगे जिसके अंदर इंद्रजीत डोरा जैसा कुछ करने की चाह उठ रही होगी पर वे भीड़ से डर गए और वही करना ज्यादा मुनासिब समझा जो उस गांव के अधिकांश लोग कर रहे थे पर डोरा ने अपने दिल की सुनी और तमाम कठनाईयों से जुझते हुए मानवता का एक शानदार उदाहरण सबके सामने रख दिया.
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