कुछ दिन पहले दिल्ली में आयोजित एक मिनी मैराथन के दौरान गुल पनाग से साथ छेड़छाड़ की बात सामने आई. घटना के बाद पूरे दिन न्यूज चैनलों पर वही चल रहा था कि किस तरह दिल्ली महिलाओं के लिए असुरक्षित है. हालांकि यह घटना मुंबई के हिसाब से तो बेहद आम और सामान्य मानी जा सकती है, पर दिल्ली में जिस तरह से इसे राई का पहाड़ बनाया गया उससे एक बार फिर मीडिया की स्थिति पर सवाल खड़े हो गए हैं.
दिल्ली न सिर्फ भारत की राजधानी है बल्कि यह मीडिया से पूरी तरह घिरा हुआ है. अधिकांश मीडिया हाउस दिल्ली और उसके पास ही स्थित हैं. नोएडा, गुड़गांव, बाहरी दिल्ली आदि क्षेत्रों में ज्यादातर टीवी न्यूज सेंटर और प्रकाशन वाले हैं.
और शायद यही वजह है दिल्ली की हर खबर सबसे जल्दी और अधिक फोकस के साथ दिखाई जाती है. सर्दी ज्यादा है तो दिल्ली जम गई, गर्मी में पिघल गई, बारिश में बह गई हर बात में दिल्ली को सबसे आगे रखने की वजह से आज दिल्ली की हर छोटी सी छोटी घटना भी बहुत बढ़ा-चढ़ा कर दिखाई जाती है. हालांकि यह सही भी है क्योंकि इससे न सिर्फ समाज में स्पष्टता आती है बल्कि बुराइयां भी कम होती हैं.
वैसे जब कोई शहर मीडिया की नजर में लाइमटाइम में आता है तो उसकी अच्छाइयों के साथ उसकी बुराइयां भी उसके साथ आती हैं. ऐसा ही दिल्ली के साथ भी हुआ है जहां अच्छाइयों के साथ बुराइयों को उससे भी ज्यादा फोकस के साथ दिखाया जाता है. जबकि अन्य शहरों में ऐसी घटनाएं बेहद आम होती हैं पर मीडिया के अधिक सक्रिय न होने की वजह से खबर या तो बन ही नहीं पाती या फिर एक आम खबर बन कर रह जाती है.
मीडिया को हमेशा समाज के सामने सच लाने की कोशिश करनी चाहिए न कि अपनी टीआरपी के लिए खबरों को पकाने का काम करना चाहिए. आज मीडिया का स्तर बाजारु हो गया है और बदलने की जरुरत है.
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