किसी भी देश में दो वर्गों का अस्तित्व होता है. एक वह जो संभ्रांत कहा जाता है जिसमें वहाँ के व्यापारी, नेता आदि रसूख वाले लोग होते हैं. दूसरे वह जो अपना पेट पालने के लिये संभ्रांतों पर निर्भर करते हैं. इन दोनों वर्गों का अस्तित्व और इनके बीच का संघर्ष बहुत पुराना है.
इनमें से पहला वर्ग संसाधनों का बड़ी ही चालाकी से अपने फायदों के लिये इस्तेमाल करता है और राजनीति, कानूनों को अपने स्तर से प्रभावित करने की हैसियत रखता है. दूसरा वर्ग कानूनों से प्रभावित होता है और अपने अधिकारों की जानकारी के अभाव में उसका इस्तेमाल नहीं कर पाता. लेकिन दूसरे वर्ग के लोग अपनी मेहनत और हौसलों से पहले वर्ग को प्रभावित करते रहते हैं. पाकिस्तान का यह व्यक्ति ऐसी ही मिसाल पेश करता है.
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पेशे से मोची मुनव्वर शकील अपने पिता की मृत्यु के बाद करीब तीन दशकों से जूते सिलने का काम कर रहा है. फैजलाबाद के रोडाला उप नगर में रहने वाला यह मोची अपनी एक शौक के कारण दूसरे मोचियों से अलग है. काम के साथ-साथ पढ़ाई करते रहने वाला यह मोची कवितायें लिखने का शौकीन है. अब तक उन्होंने पाँच किताबें लिखी है जिन्हें पुरस्कार भी मिल चुके हैं.. उनकी ज़िंदगी में शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरता है जिस रोज वह चार घंटे से कम पढ़ाई करता हो. 250 से 300 तक की मासिक कमाई से वह लगभग 10 रूपये बचाता है जिसे वह अपने इस शौक को पूरा करने के लियेखर्च करता है.
अब तक उन्होंने पाँच किताबें लिखी है जिनमें सोचसमंदर, परदेसदि संगत, अक्खाँ मिट्टी हो गइयाँ आदि हैं. शकील अपनी मातृ ज़ुबान पंजाबी में ही लिखते हैं. उनकी लेखनी और कविताओं में समाज के वंचित तबकों के दर्द और संघर्ष की झलक दिखती है. अपनी कविताओं के कारण वह विभिन्न साहित्यिक समूहों जैसे रॉयल अदाबी अकादमी, जारनवाला और नक़ीबी कारवाँ-ए-अदब के सदस्य भी हैं. उनका मानना है कि मातृभाषा में पढ़ लिख कर ही व्यक्ति मौलिक हो सकता है.
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जब मुख्यधारा की मीडिया नारायण मूर्ति के कथन को प्रमुखता से छाप रही है जिसमें उन्होंने कहा कि आइआइटी जैसी संस्थाओं में पिछले 60 वर्षों में ऐसा कोई आविष्कार नहीं हुआ जो वैश्विक स्तर पर घरेलू नाम बन सके, वहीं एमआइटी जैसी संस्थाओं ने उत्कृष्ट काम किया है. ऐसे समय में पाकिस्तान के मोची मुनव्वर शकील की मातृज़ुबाँ में पढ़ने-लिखने की सोच उनको एक टका-सा परंतु सच्चा जवाब देने में सक्षम है.Next….
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