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ऐसी मां हुई तो कोई बच्चा नहीं बच पाएगा

downloadदया, ममता की मूरत, त्याग की मूर्ति, करुणा की देवी जैसी उपमाओं से विभूषित की जाने वाली मां हर किसी के लिए दुनिया में सबसे ज्यादा प्यारा होता है. कहते हैं ‘पुत्र कुपुत्र हो सकता है, माता कुमाता नहीं हो सकती’. मतलब मां की ममता और आह्लाद हर शक, शंका से परे है. मां पर एक बहुत पुरानी लोककथा है. एक विधवा मां ने अपने बच्चे को बड़ी मुश्किलों से पाला. उसके पास खाने को नहीं होता. बड़ी मुश्किल से वह एक वक्त का खाना जुटा पाती. कई-कई दिन तक ऐसा होता कि वह बेटे को खाना खिलाकर खुद भूखी सो जाती. बेटे ने भी मां की लाज रखी, बड़ा होकर अफसर बना. शादी के बाद उसकी पत्नी बुढ़िया को तरह-तरह से सताती. एक दिन उसने बुढिया का कलेजा खाने की जिद कर दी. बेटे ने मां से उसका कलेजा मांग लिया, पर बुढ़िया ने खुशी-खुशी कलेजा दे दिया. कलेजा लेकर वह जा ही रहा था कि उसे ठोकर लग गई और वह गिर पड़ा. अचानक कलेजे से आवाज आई, “बेटा कुछ हुआ तो नहीं?”. यह होती है मां की ममता. पर आज के इस बदलते वक्त में शायद मां की परिभाषाएं भी बदलनी लगी हैं. वरना मां का इतना क्रूर स्वरूप तो दुनिया के किसी भी कोने में शायद अपने कभी कल्पना भी नहीं की होगी.


हाल की ही खबर है. चीन में एक दुधमुंहे बच्चे को उसकी मां को ने कैंची से पूरा शरीर काट डाला. शायद आप यह सुनकर सिहर उठे हों. पर यह सच है, इससे भी इनकार नहीं कर सकते. बच्चे की गलती यह थी कि दूध पीते हुए वह हाथ-पांव मार रहा था, जो इसकी मां को पसंद नहीं आया. उसने गुस्से में बच्चे के पूरे शरीर को चेहरे समेत कैंची से गोद डाला. डॉक्टरों के मुताबिक 8 महीने के इस बच्चे को 90 बार कैंची से गोदा गया और पूरे 100 टांके इसके पूरे शरीर पर लगे. डॉक्टर इसे भगवान का चमत्कार ही मानते हैं कि इतने गहरे जख्मों के बाद भी बच्चा बच गया. कोई भी ऐसे डरावने सच की सपने में भी कल्पना नहीं कर सकता. पुलिस की पूछताछ में जब इस क्रूर मां और इंसानियत को शर्मसार करने वाली इस घटना के कारण का पता चला तो सब हैरान रह गए. दूध पीते हुए बच्चे के हाथ-पांव हिलाने से अगर हर मां को इतना गुस्सा आने लगा फिर तो दुनिया में किसी भी बच्चे का बचना मुश्किल हो जाएगा और दुनिया ही खत्म हो जाएगी. इतनी सी बात पर एक मां का इतना गुस्सा होना हर किसी को हैरान कर देने वाला है. पुलिस और डॉक्टर महिला को दिमागी तौर पर बीमार और किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त मान रहे हैं. पर क्या मानसिक बीमारी इतना खतरनाक हो सकती है?


आपने काजोल और अजय देवगन की मानसिक बीमारी ‘अल्जाइमर’ पर बनी फिल्म ‘यू, मी और हम’ देखी होगी. इसमें काजोल को यह बीमारी होती है और एक दिन वह अपने दुधमुंहे बच्चे को बाथरूम में खुले नल के आगे टब में छोड़कर भूल जाती हैऔर बच्चे को निमोनिया हो जाता है. अल्जाइमर में आदमी को भूलने की आदत बन जाती है. इसके कारणों का अभी तक पता नहीं चल सका है. अक्सर डॉक्टर इसे अत्यधिक मानसिक तनाव से जोड़कर देखते हैं.


मानसिक तनाव और मानसिक स्वास्थ्य, ये दो मुद्दे हैं जो बहुत महत्वपूर्ण के बावजूद आज भी अपेक्षित हैं. इन मुद्दों को बहस और जागरुकता की उतनी ही जरूरत है जितनी एड्स जैसी बीमारी को. जैसे एड्स एक इंसान से दूसरे इंसान में फैल सकता है, वैसे ही मानसिक बीमारियां भी फैल सकती हैं. जैसे एड्स एक बसे-बसाए परिवार को उजाड़ देने की ताकत रखता है, वैसे ही मानसिक बीमारियां भी. जैसे थोड़ी से सावधानी से एड्स से बचा जा सकता है, वैसे ही मानसिक बीमारियों से बचने के लिए भी बस थोड़ी सी सावधानी की जरूरत है. शायद कुछ लोग सोचेंगे कि इतनी भयानक और जानलेवा बीमारी से मानसिक बीमारियों का तुलना का आखिर क्या तात्पर्य है? पर तात्पर्य है. बहुत गहरा तात्पर्य है.


इस प्लेटफॉर्म पर पहले भी इसी सेक्शन में मानसिक बीमारी पर एक लेख लिखा था. मानसिक बीमारियों पर लोग अक्सर बहस से बचना चाहते हैं. इतनी भाग-दौड़ भरी जिंदगी में किसके पास इतना वक्त है कि वह इन बातों पर वक्त बिताए. पर सच्चाई कुछ और ही है. कैंसर, एड्स, हेपाटाइटिस जैसी बीमारियों के बारे में हर कोई जानना चाहता है. हर कोई जानता है कि ये बीमारियां जानलेवा हैं और इनसे बचकर रहना ही उनके जीवन के लिए बेहतर है. इनपर बहस के लिए तो छोड़िए, लोग सेमिनार में भी 5 घंटे बिता सकते हैं. पर जब ऐसी ही बात मानसिक बीमारियों के लिए आती है तो लोगों के पास यहां तक कि इसपर बात तक करने के लिए वक्त नहीं होता.


सच तो यह है कि हमारी सोच ने अब तक मानसिक मानसिक बीमारियों को बीमारियों का दर्जा ही नहीं है. यह कोई बहुत अच्छी बात नहीं है, जिसे मान्यता दिलाने के लिए क्रांति की जाए. पर हां, इतना जरूर है कि इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान आकर्षण कराना अत्यंत आवश्यक है. लोग जब तक इसकी संवेदनशीलता को नहीं समझेंगे तब तक इसके बारे में न तो उनकी सोच कुछ भी स्वीकार करेगी, न इस बारे में उन्हें जानकारी होगी. इस तरह उपेक्षित रहकर यह पूरे समाज को बुरी तरह संक्रमित कर देगा. इसके परिणाम निश्चय ही विनाशकारी होंगे.


सवाल यह उठता है कि मानसिक बीमारियां आती कहां से हैं और इसकी पहचान का निश्चित तरीका क्या होना चाहिए? जाहिर है अन्य बीमारियों की तरह न इसके कोई शारीरिक लक्षण होते हैं, न कोई डॉक्टरी जांच. पर हां, इस अवस्था में अपने व्यक्तित्व और व्यवहार में बहुत से नकारात्मक परिवर्तन कोई स्वयं भी महसूस कर सकता है और उसके साथ का हर व्यक्ति इस परिवर्तन को महसूस कर सकता है. गुस्सा, चिड़चिड़ापन, शक ये सारे मानसिक रोगों के शुरुआती लक्षण हैं जो अमूमन हम नजरअंदाज कर देते हैं. पर शुरुआती दिनों में इसे नजरांदाज करना ही बाद में भारी परिणाम लेकर सामने आते हैं. अल्जाइमर, सीजोफ्रीनिया जैसी बीमारियों की शुरुआती अवस्था कुछ इसी तरह की होती है. आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में जहां व्यक्ति के पास अपने लिए एक मिनट का टाइम निकालना भी मुश्किल लगता हो, जहां वे आराम करना वक्त की बर्बादी समझते हों, इसके पनपने की मुख्य वजह है.


दिमाग भी एक मशीन है. जैसे मशीन को बेहतर रूप से चलने के लिए ग्रीज की जरूरत होती है, दिमाग को खाना, पोषक तत्वों के साथ ही एक और चीज भी चाहिए और वह है आराम. हम काम करते हैं, सही है, पर भूल जाते हैं, हमारे दिमाग रूपी मशीन को सही से चलाने के लिए उसे आराम देना भी इसकी सख्त जरूरत है. आज के दौर में देर रात जागना, कम सोना आम बात है. कभी तो ये चीजें मस्ती के नाम पर होती है, कभी आदत और फिर जरूरत बनकर चलने लगती है. बस एक बार शुरु हुआ सिलसिला अगर रुकता नहीं, दिमाग थकने लगता है. नतीजा तनाव, अवसाद, चिड़चिड़ापन आदि के रूप में सामने आता है.


एक आम इंसान, जो पूरी तरह भला-चंगा दिखता है, अचानक छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा होना उसकी आदत बनने लगती है, अचानक लोगों से वह कटने लगता है, अपने परिजनों पर शक करने लगता है. शुरुआत में वह खुद भी यही समझता है, वह परेशान है, ठीक हो जाएगा. धीरे-धीरे आप ही नहीं, वह खुद भी इसे अपनी आदत के रूप में स्वीकार कर लेता है. इस तरह स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जाती है और भयानक बीमारी के रूप में उभर कर सामने आती है. तब भी समाज के डर से हम ऐसे रोगियों को मनोचिकित्सक के पास लेकर नहीं जाते. क्यों? क्योंकि मनोचिकित्सक का अर्थ हम हमेशा पागलों का इलाज करने वाला डॉक्टर के रूप में लेते हैं. निश्चय ही ऐसी भ्रामक स्थितियां हर दिशा में विध्वंसकारी ही साबित होती हैं.


डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की कुल बीमारियों का 13 फीसदी हिस्सा मानसिक बीमारियों का होता है. दिखने में सामान्य सी लगने वाली यह बीमारी जब विकराल रूप लेती है जो पीड़ित का जीवन तो बर्बाद होता ही है, उसके साथ का हर व्यक्ति, उसका परिवार इससे बुरी तरह प्रभावित होता है. उपर्युक्त घटना इसका एक उदाहरण है. अंग्रेजी में एक कहावत है ‘प्रिवेंशन इज बेटर दैन क्योर’. मतलब इलाज से बेहतर बचाव करना है. चूहे ने अगर कपड़ा काट दिया, आप रफ्फू कर इसे सही कर सकते हैं. पर इसमें इतना श्रम और वक्त लगाने से बेहतर है कि इसे चूहों से बचाने के उपाय किए जाएं.


अत्यधिक क्रोध, अवसाद जैसी चीजें दिमाग के लिए एक प्रकार के चूहे ही हैं जो दिमाग की कार्यक्षमता को धीरे-धीरे कुतर कर खत्म कर सकते हैं. इनकी एक वजह होती है. जरूरत है कि इन वजहों को ढ़ूंढ़कर इसे खत्म किया जाए. अगर शुरुआत में ही इसपर ध्यान दिया जाए तो इसके दुष्परिणामों से बचा जा सकता है. इसके लिए भी यह बहुत जरूरी है कि इसे शर्मनाक और सिर्फ व्यक्ति-विशेष के लिए घातक न मानकर समाज के लिए घातक माना जाए.


जैसे एक सड़ा आम पूरी टोकरी के आम को सड़ा देता है, वैसे ही एक मानसिक रोगी अपनी असामान्य स्थितियों से पूरे परिवार की मानसिक स्थिति को प्रभावित कर सकता है. उस व्यक्ति-विशेष की गतिविधियां समाज को प्रभावित कर सकती हैं. पिछले वर्ष दिल्ली का ही एक वाकया है, एक लड़के ने सिर्फ ठोकर लगने के गुस्से में गोली चला दी. ऐसे वाकए मानसिक विकृतियों की ही देन हैं. समाज को इनके प्रति सहयोगात्मक रवैया अपनाते हुए समय रहते इसके उपाय की दिशा में सचेत होना होगा, वरना शायद भविष्य में हर मां ऐसी ही क्रूरता की मिसालें पेश करें.

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