वृद्धावस्था उम्र का एक ऐसा पड़ाव होता है जिसमें कदम रखते-रखते आप अपने परिवार और बच्चों की परवरिश से जुड़े लगभग सभी कर्तव्यों को पूरा कर लेते हैं. परिवार की जरूरतों और उनकी इच्छाओं को पूरा करते-करते आप जो अनमोल क्षण अपने साथी के साथ व्यतीत नहीं कर पाते इस दौरान आप एक-दूसरे के और अधिक नजदीक आ जाते हैं. इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि आपके जीवन में जीवनसाथी की क्या अहमियत है यह आपको वृद्धावस्था में ही पता चलती है.
लेकिन अगर दुर्भाग्यवश आपका जीवन साथी बीच राह में ही आपका साथ छोड़कर चला जाए तो? शायद इस पीड़ा को सहन कर पाना किसी के लिए भी संभव ना हो. जीवनसाथी की याद और रोजाना अकेलेपन से जूझते हुए व्यक्ति अंदर ही अंदर कमजोर पड़ने लगता है, उसके लिए जीवन का महत्व ही समाप्त हो जाता है. संतानें चाहे आपसे कितना ही प्रेम और लगाव क्यों ना रखती हों लेकिन जब उनका अपना परिवार बस जाता है तो कहीं ना कहीं वह अपने बच्चों और साथी की जरूरतों को अपने अभिभावकों से ज्यादा महत्व देने लगते हैं. ऐसा भी नहीं है कि अब आपके बच्चों के जीवन में आपकी पहले जैसी आवश्यकता नहीं है लेकिन समय के साथ-साथ मनुष्य की प्राथमिकताएं भी बदल ही जाती हैं. वैसे भी आज जब बच्चे काम और कॅरियर के सिलसिले में अभिभावकों से दूर हो रहे हैं तो ऐसे में अकेला जीवन बोझिल लगने लगता है.
भले ही आप अपने जीवन साथी से कितना ही लड़ते-झगड़ते क्यों ना हों, लेकिन जब वह आपके जीवन से दूर चला जाता है तो आपको उसकी वही सब आदतें बहुत याद आती हैं. आप खुद को अकेले रहने के लिए तैयार नहीं कर पाते. आप एक-दूसरे से कितना ही लड़ते-झगड़ते क्यों ना हों, उसकी फिजूल की आदतों से परेशान क्यों ना हो जाते हों, लेकिन आप उसके बिना और अकेले रहने के लिए भी खुद को तैयार नहीं कर पाते. निश्चित रूप से यह आपको भावनात्मक क्षति तो पहुंचाता ही है साथ ही भरा-पूरा परिवार होने के बावजूद आपको अकेलेपन का अहसास होने लगता है.
कुछ समय पहले तक अगर अभिभावक अपने बच्चों या फिर किसी और से अकेलेपन की शिकायत करते थे तो उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता था लेकिन अब समय बदलने के साथ-साथ बच्चों के नजरिये में भी अत्याधिक परिवर्तन देखा जा रहा है. अभिभावक तो बच्चों के लिए सुयोग्य जीवनसाथी तलाशते थे लेकिन अब बच्चों ने भी अपने अभिभावकों की भावनाओं और उनके तन्हां हो चुके जीवन में खुशियां भरने की कोशिशें प्रारंभ कर दी हैं. आज बच्चे स्वयं अपने माता-पिता का विवाह करवा रहे हैं और वो भी 60-70 की उम्र में. भले ही कुछ लोगों को यह खबर अटपटी लगे लेकिन सच यही है कि अब पुन: विवाह के लिए उम्र कोई मायने नहीं रखती. इतना ही नहीं, पहले जहां सौतेले अभिभावकों का अहसास भी बच्चों को सहन नहीं होता था आज वह स्वयं अपने लिए योग्य लेकिन सौतेले माता-पिता की तलाश कर रहे हैं.
वे बच्चे जो नौकरी या फिर अन्य किसी कारण से अपने माता-पिता से दूर रहते हैं, वह नहीं चाहते कि अपने जीवन साथी को खोने के बाद अभिभावक तन्हां जीवन व्यतीत करें इसीलिए वह स्वयं उनके लिए साथी चुन रहे हैं. अभिभावकों से दूर रहने के कारण उन्हें उनकी चिंता सताती रहती है इसीलिए वह अब उनका घर दोबारा से बसाने के लिए प्रयासरत हैं.
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आलम यह हो जाता है कि अकेलेपन से आहत होकर और अपनी जरूरत को समाप्त होता देख वृद्ध अपने जीवन के समाप्त होने का ही इंतजार करते रहते हैं. अगर ऐसे में उन्हें एक अच्छा जीवनसाथी मिल जाएगा तो इसमें किसी को क्या परेशानी हो सकती है.
जानकारी के अनुसार दिल्ली और नोएडा में रहने वाले 200 से ज्यादा बुजुर्गों ने मैरेज ब्यूरो में रजिस्ट्रेशन करवाया है जिनकी उम्र 60-70 के बीच है. सभी बुजुर्ग आर्थिक तौर पर सक्षम हैं और मासिक 50-70 हजार रुपए कमा लेते हैं. रजिस्ट्रेशन कराने वाले ज्यादातर बुजुर्गों के बच्चे विदेश में रहते हैं.
हो सकता है कुछ लोग बुजुर्गों और उनके परिवार की दूसरे विवाह के प्रति बढ़ती चाहत को अपशब्दों से संबोधित करें लेकिन अगर वह अपने अकेलेपन को दूर करना चाहते हैं और इसके लिए एक साथी की दरकार रखते हैं तो इसे उनका व्यक्तिगत या फिर पारिवारिक मसला ही समझा जाना चाहिए. वैसे भी कानूनन किसी भी आयु वर्ग के व्यक्ति को सशर्त दूसरा विवाह करने की पूरी स्वतंत्रता है.
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