विकलांगता समाज के लिए कुछ समय पहले तक कुष्ठ रोग की तरह था. लोग अपाहिजों को एक अलग नजर से ही देखते थे. उनके लिए विकलांग होना भगवान के द्वारा दिया गया एक श्राप होता था. आज भी हालात अंदर से वैसे ही हैं बस समाज में ऊपरी दिखावे के लिए लोगों ने विकलांगों को कंधा देना शुरु कर दिया है. लेकिन कई लोग अपाहिजों और विकलांगों को सहायता देने की जगह उनकी भावनाओं से खेलते हैं. लोगों की दया दृष्टि ऐसे विकलांगों के लिए एक चुभते कांटे की तरह होती है जो सीधे दिमाग पर असर करती है. कई बार लोगों की मार और फटकार भी इन विकलांगो को उतनी नहीं चुभती जितना किसी का इन्हें बेचारा कहना.
विकलांगता या अपाहिज होने के दर्द को हम जितना समझते हैं वह उस वास्तविक दर्द का मात्र कुछ प्रतिशत ही है. आप कुछ समय के लिए अपने हाथ और पैर बांध कर दिन भर गुजारिए, उसके बाद आपका जो अनुभव होगा उसके आधार पर सोचिए और हम तो कहते हैं वह अनुभव भी कुछ नहीं. कई बार लोग या तो विकलांगो को घृणा की दृष्टि से देखते हैं या कई बार उन्हें उन पर दया आती है और दोनों ही स्थिति में उन्हें तिरस्कार सा महसूस होता है.
विकलांगता दो तरह की होती है एक मानसिक और दूसरी शारीरिक. शारीरिक विकलांगता से ग्रस्त लोग बेशक शरीर से अपाहिज होते हैं लेकिन उनकी मानसिक स्थिति सही होती है. ऐसे लोग जब कभी समाज के बीच आते हैं तो लोग उन्हें एक अजूबे की तरह देखते हैं. लोगों की घूरती निगाहें उन्हें कांटे की तरह चुभती हैं. सरकार चाहे लाख कानून या प्रावधान बना ले लेकिन क्या वह समाज की सोच और इन घूरती निगाहों पर काबू पा सकती है, नहीं यह तब तक मुमकिन नहीं जब तक समाज खुद इस ओर अग्रसर नहीं होगा. समाज के हर तबके को समझना होगा कि विकलांग भी ईश्वर के द्वारा ही बनाए गए हैं और उन्हें भी जीने का हक है.
शारीरिक रुप से विकलांग तो फिर भी समाज में अपने मानसिक कुशलता की वजह से लोगों का सामना कर लेते हैं लेकिन मानसिक रुप से विकलांग लोगों के लिए मुश्किलें और भी ज्यादा हैं क्योंकि उन्हें जीने के लिए एक कड़ा संघर्ष करना पड़ता है. हर राह पर उन्हें सहारा चाहिए होता है. ऐसे में न सिर्फ पीड़ित परेशान होता है बल्कि उसके साथ-साथ मानसिक विकलांग व्यक्ति के परिवारजन भी परेशान होते हैं.
आज हम यह तो कह सकते हैं कि सरकार विकलांगों और बेसहारों के लिए बनाई नीतियों पर सही ढ़ंग से काम नहीं कर रही पर यह भी सच है कि इससे कहीं ज्यादा हम खुद कसूरवार हैं. सड़कों के किनारे जब हमें कोई अपाहिज मिलता है तो हम पहली नजर में उस पर दया दृष्टि डालते हैं लेकिन यह भी सच है कि हम उससे दूर ही रहते हैं.
आज विकलांगों को हमारी दया और सहारे की जरुरत नहीं है आज उन्हें जरुरत है एक सा होने का अहसास मिलना. उन्हें यह महसूस कराना होगा कि वह भी हमारे जैसे ही हैं. एक शब्द में कहें तो उन्हें सद्भावना की जरुरत है दया की नहीं.
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