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गरीबों की दुर्दशा और सरकार की बेरुखी

सरकारी लापरवाही और गैरजिम्मेदाराना रवैये के कारण महंगाई की हालत दिनों-दिन बिगड़ती जा रही है, प्रधानमंत्री किसी खास निर्देश के इंतजार में मौन साधे हुए हैं, आला कमान को फर्क नहीं पड़ता और जनता बेमौत मरने की तैयारी कर रही है. सबसे ज्यादा शर्मनाक स्थिति तो तब पैदा होती है जबकि देश का मुखिया महंगाई के लिए अपनी गरीब जनता को ही दोषी ठहराए.


inflationसरकार की हर मसले पर फेल होने की आदत ने इस समय आम आदमी को ऐसी कगार पर ला खड़ा कर दिया है जहां उसे अपनी जान से ज्यादा अपनी थाली के बारे में सोचना पड़ रहा है. मंहगाई मुंह फैलाए उसे लीलने को खड़ी है तो असुरक्षा का ऐसा माहौल है कि हर कदम पर मौत से सामना हो ही जाता है. लेकिन इंसान अपने जीने की तो तब सोचे जब वह जी पाए और जीने के लिए जरुरी है दाना पानी. महंगाई के इस दौर में एक आम आदमी के लिए दो वक्त के लिए अपने खाने की थाली को भर पाना भी एक मेहनत का काम बन गया है.



आज खाद्य साम्रगियों की महंगाई इस तरह बढ़ गई है कि यह भारत के सामने सबसे बड़ी समस्या बनकर उभर आई है. अगर हम जमीनी हकीकत की बात करें तो दिल्ली जैसे महानगर में आपको चावल की सबसे निचली किस्म भी 30 से 35 रुपए किलो के हिसाब से बिक रही है और यही हाल गेंहू का भी है. प्याज और टमाटर जैसे सब्जियों का स्वाद उनकी कीमत की वजह से कड़वा हो गया है. आलू के परांठे प्लेट से मानो गुम ही हो गए हैं. और दाल की तो बात ही न करें, एक संपन्न परिवार के लिए भी प्रतिदिन दाल खाना मुश्किल है. यह हालत है दिल्ली जैसे महानगर की जहां माना जाता है कि लोग संपन्न होंगे, तो फिर गांवों की बात क्या करें.


सरकार ने महंगाई को काबू करने के लिए और गरीब लोगों की जिन्दगी से संघर्ष को कम करने के लिए कई कार्यक्रम तो बनाए पर सभी या तो ठंडे बस्ते की भेंट चढ़ गईं या फिर जरुरतमंदों की बजाए नेताओं का पेट भर रही हैं. और जो कार्यांवित हैं वह भी इतनी काफी नहीं कि आम आदमी के भूख को शांत कर सकें. भारत जहां 25 फीसदी से ज्यादा लोगों की कमाई एक खास मौसम में ही हो पाती है और ऐसे लोग न ही मनरेगा जैसे सरकारी कार्यक्रमों के दायरे में आते हैं और न ही उनके लिए कोई अन्य योजना बनाई गई है तो फिर ऐसे में उनका निर्वाह कैसे होगा और ये किसकी जिम्मेदारी है? .


जहॉ तक मनरेगा की बात है तो अब आप एक उदाहरण लेकर देखिए, मनरेगा के अंतर्गत सरकार ने एक व्यक्ति के लिए प्रतिदिन का मेहनताना 125 से 130 रुपए रखा है. अब अगर एक व्यक्ति के घर में पांच सदस्य हैं और कमाने वाला मात्र एक उस स्थिति में घर का चल पाना कितना मुश्किल होगा. एक बार के खाने के लिए पांच सदस्यों के परिवार को कम से कम एक किलो चावल की तो जरुरत है ही और चावल अब भला वह सूखे तो खाएगा नहीं, दाल या सब्जी चाहिए. और दाल के भाव इतने ऊंचे हैं कि पूछो ही मत और कुछ यही हाल सब्जियों का भी है. प्याज अगर कोई 60 रुपए खरीदे और दाल 80 रुपए तो एक दिन की दिहाड़ी तो इन्हीं दोनों में गई. हालत वही है नंगा खाएगा क्या और बचाएगा क्या.


सरकार मंहगाई के मसले पर कई बार कैबिनेट मीटिंग बैठा चुकी है, कई आला नेता महंगाई कम होने का आश्वासन दे चुके हैं. पर कागजी हकीकत से परे जमीनी स्तर पर हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. जबकि महंगाई तेजी से बढ़ती जा रही है? इसे लेकर भले ही देश-दुनिया के अर्थशास्‍त्री माथापच्‍ची में व्‍यस्‍त हों पर हमारे केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार जी के बयान बार-बार लोगों के जख्मी दिलों पर नमक छिड़क जाते हैं.


अगर हालात यही रहे तो भारत में जल्द ही भूखमरी और आत्महत्याओं का दौर शुरू हो जाने की आशंका है. अनाज के भरपूर मात्रा में होने के बाद भी उसकी कीमतों की वजह से आम आदमी पेट के बोझ के तले दबता जा रहा है.


अगर सरकार जल्द ही नहीं संभली और हालात को काबू में नही लाया गया तो समाज का एक बड़ा वर्ग भूखमरी और कुपोषण की चपेट में आ सकता है और हालातों के आगे घुटने टेक कर आत्महत्या करने को मजबूर हो सकता है. इसके साथ ही सरकार को जरुरत है कि वह अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए ऐसे लोगों के भविष्य के बारे में भी सोचे जो गरीबी रेखा के नीचे तो नहीं आते पर उनकी हालत किसी गरीब से कम नहीं है. इसके साथ ही सरकर पर आम आदमी के ऊपर बोझ को कम करने का दायित्व होगा. खाने के साथ यातायात और अन्य साधनों के दामों में होने वाली वृद्धि को तो काबू करना होगा ही साथ कुछ ऐसा करना होगा ताकि आने वाले भविष्य को भी सुरक्षित किया जा सके. काम आसान नहीं है और स्थिति को काबू करने के लिए बड़े स्तर पर एक ऐसे काम की जरुरत है जो क्रांति का रुप ले सके.

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