हम इंडियंस बहुत होशियार होते हैं. शक्ल देखकर ही व्यक्ति की नेशनैलिटी बता देते हैं. जो बहुत गोरा होता है उसे अंग्रेज घोषित कर दिया जाता है और जिसका रंग काला होता है उसे अफ्रीका से आए लोगों के साथ रिलेट कर दिया जाता है. शायद हमारी नॉलेज लंदन और अफ्रीका तक ही सीमित है इसलिए तो भले ही वह व्यक्ति अमेरिकन हो, स्पैनिश हो या फिर केन्याई क्यों ना हो, हमारे लिए तो वह सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज या फिर अफ्रीकन ही है. ऐसे ही कुछ संज्ञाएं हम चीन और जापान से आए लोगों को भी देते हैं, जिन्हें हम चिंकी कहकर पुकारते हैं.
पर अफसोस दूसरे देश के लोगों को पहचानते-पहचानते हम अपने ही देश के लोगों के चेहरे भूल गए, जिसके फलस्वरूप उन्हें अपने से अलग समझने लगे हैं और जानबूझकर उन्हें पराया होने का एहसास करवाते हैं. भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में रहने वाले या वहां से आकर महानगरों में बसने वाले लोगों के साथ किया जाने वाला नकारात्मक व्यवहार मानव के इसी तथ्य का एक बेहद मार्मिक उदाहरण है. चेहरे-मोहरे से चीन, तिब्बत जैसे देशों के दिखने वाले उत्तर पूर्वी राज्य के लोगों को हर रोज, हर पल रेसिज्म का दंश झेलना पड़ता है और उन्हें अजनबी होने का एहसास करवाने वाले होते भी हम जैसे ही लोग हैं.
यह भेदभाव किसी को मानसिक रूप से कितना परेशान कर सकता है, आप इस वीडियो के जरिए इसे बेहतर तरीके से समझ सकते हैं:
देश के बाहर जब भारतीय होने पर हमें रंगभेद का सामना करना पड़ता है तो कितना दर्द होता है. किसी दूसरे देश के लोगों द्वारा हमारे प्रति यह व्यवहार हमें कितना दर्द पहुंचाता है लेकिन जब यह व्यवहार कोई अपना करता है तो यकीन मानिए यह बेहद दुखद होता है. चेहरे-मोहरे और रंग पर आधारित भेदभाव मानव ने खुद विकसित किए हैं और भारत की जमीन पर तो इसका अस्तित्व सदियों से देखा भी जा सकता है.
जाहिर तौर पर एक का दूसरे के प्रति भेदभाव किसी भी विकासशील समाज की उन्नति में बाधक है साथ ही लोगों को भावनात्मक तौर पर भी नुकसान पहुंचाता है. इसलिए युवा जिनके कंधों पर समाज को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाने जैसी बड़ी जिम्मेदारी है, उनका यह दायित्व बनता है कि वो किसी भी ऐसे घटक को समाज में ना घुलने दें जो हमारी एकता और अखंडता के लिए घातक साबित हो.
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