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कलयुग का भागीरथ: मृत हो चुकीं पांच नदियों में फूंके प्राण

राजेंद्र सिंह का नाम कुछ दिन पहले तब चर्चा में आया जब उन्हें स्टॉकहोम वाटर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इस सम्मान को जल क्षेत्र के नोबेल पुरस्कार के तौर पर देखा जाता है. राजस्थान में लोग उन्हें पानी वाले बाबा के नाम से जानते हैं. राजेंद्र सिंह वह व्यक्ति हैं जिनके अथक प्रयासों से 5 नदियां फिर से जी उठीं और राजस्थान के उन इलाकों में भी फसल लहलहा उठी जो सरकारी फाइलों में डार्क जोन घोषित थीं.


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भारत के जलपुरूष के नाम से प्रसिद्ध राजेंद्र सिंह को इससे पहले वाटर हारवेस्टिंग और वाटर मैनेजमेंट के लिए रेमन मैगसेसे अवार्ड भी मिल चुका है.  1980 में पढ़ाई पूरी करने के बाद राजेंद्र सिंह एक सरकारी नौकरी से जुड़े. नौकरी के दौरान ही वे एक संस्था जिसका नाम तरुण भारत संघ था उससे भी जुड़े पर 1984 में संस्था के साथी सदस्यों से इनका कुछ विवाद हो गया. तब वे संस्था के जनरल सेक्रेटरी के पद पर थे. इस विवाद के कारण बोर्ड के सभी सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिया. अब पूरी संस्था की जिम्मेदारी उनपर थी. राजेंद्र लोगों के नजदीक रहकर काम करना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने कुछ बेहद साहसिक फैसले लिए. 1984 में ही उन्होंने नौकरी छोड़ दी. और एक दिन उन्होंने अपनी सारी संपत्ति 23,000 रुपए में बेचकर एक बस में आखिरी स्टॉप के लिए टिकट लेकर चढ़ गए.


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राजेंद्र को नहीं पता था कि वे कहां जा रहे हैं. बस का आखिरी स्टॉप था अलवर जिले का किशोरी नामक गांव और तारीख थी 2 अक्टूबर 1985. इस दिन के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. शुरुआत में उन्होंने शिक्षा के ऊपर काम करना शुरू किया पर जल्द ही उन्हें एहसास हुआ कि शिक्षा से ज्यादा इस क्षेत्र मेंं पानी के मुद्दे पर काम करना आवश्यक है. उन्होंने पाया कि सालोंं से हो रही जंगल की कटाई और खनन के कारण यह जिला बंजर हो चला है. इस क्षेत्र में घटते जलस्तर का एक कारण लोगों द्वारा जल प्रबंधन के पारंपरिक तरीकों का त्याग करना और बोरवेल जैसे आधुनिक तरीकों पर निर्भर हो जाना भी था. राजेंद्र ने क्षेत्रीय लोगों से जल प्रबंधन के पारंपरिक तरीके सीखे जिसमें जोहाद या छोटे-छोटे मिट्टी के चेक डैम का निर्माण मुख्य रूप से शामिल था.


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उनके कई  शहरी दोस्तों को गांववालों के साथ जोहाद के निर्माण में शारीरिक श्रम करने का आइडिया पसंद नहीं आया और वे राजेंद्र को छोड़ वापस लौट आए. राजेंद्र ने ग्रामीणों के साथ मिलकर सबसे पहले गोपालपुरा जोहाद से गाद निकालने का काम शुरू किया जो वर्षों की अनदेखी के कारण उपयोग लायक नहीं रह गया था. उस वर्ष जब मानसून आय तो गोपालपुरा जोहाद भर गया और साथ ही आसपास के कुओं में भी पानी भर आया जो सालों से सूखे पड़े थे. अगले तीन सालों मेंं गोपालपुरा जोहाद की गहराई 15 फीट कर दी. कुछ ही सालों में क्षेत्र का जलस्तर बढ़ गया और उसे डार्क जोन से व्हाईट जोन घोषित कर दिया गया.


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उनके इन प्रयासों को देखकर वन विभाग ने उन्हें सरिस्का नेशनल पार्क में जल प्रबंधन के लिए आमंत्रित किया. 1986 में उन्होंने अपनी पहली पदयात्रा शुरू की और क्षेत्र के ग्रामीणों को जोहाद के निर्माण के फायदों के बारे में अवगत कराया. उनकी संस्था तरुण भारत संघ के कार्यकर्ताओं ने अरवारी नदी के उद्गम स्थल पर जोहाद का निर्माण किया जो कि कई वर्षों से मृत हो सूख चुकी थी. इसके अलावा नदी के कैचमेंट एरिया या अपवाह क्षेत्र में पड़ने वाले गांवों में भी छोटे-छोटे मिट्टी के बांधों का निर्माण कराया गया. कुल 375 बाधों का निर्माण हुआ और वर्ष 1990 में  पिछले 60 सालों से सुखी पड़ी नदी में फिर पानी बहने लगा.


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कुछ इसी तरह से राजस्थान की अन्य चार नदियां भी जिंदा हो गईं. इन नदियों के नाम हैं रुपारेल, सरसा, भगनानी और जहाजवाली. सन 2001 तक उनकी संस्था तरुण भारत संघ का कार्यक्षेत्र मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और आंध्र प्रदेश की 6,500 वर्ग किमी तक फैल गया था. अबतक इस संस्था ने 4,500 से अधिक जोहाद का निर्माण किया है जिससे राजस्थान के हजार से अधिक गांवों में पानी उपलब्ध हो पाया है. Next…


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