खिलने दो फूलों को , कलियों को मुसकाने दो
आने दो रे आने दो, उन्हें इस जीवन में आने दो
आप सभी ने एक बात हमेशा गौर की होगी कि पड़ोस या घर में अगर लड़का पैदा हो तो खुशियों की जैसे बहार आ जाती है लेकिन अक्सर देखने में आता है कि लड़कियों के होने पर सब उतने खुश नहीं होते जितने लड़का पैदा होने पर होते हैं. यह हालत गांवों की तरफ अधिक है जहां कई बार तो लड़की के पैदा होते ही या तो उसे मार दिया जाता है या फिर घर के सदस्य उसे गाली दे अपनी मन की आग को शांत कर लेते हैं. लेकिन यह फर्क क्यों? क्या लड़का घरवालों को लड़की से अधिक प्यारा होता है?
शांति अपने घर की बड़ी बेटी है और सुभाष उसका छोटा भाई. शांति पढ़ना चाहती थी लेकिन उसकी मां के विरोध की वजह से वह हमेशा घर के काम करती है और उसे सुभाष की तरह आजादी भी नहीं दी जाती है. सुभाष को सुबह सुबह उठते समय दूध मिलता है तो शांति को मां की डांट. इसी तरह जब सुभाष बड़ा हो गया तो भी शांति के साथ यह भेदभाव चलता रहा. आखिरकार नादान शांति ने अपनी मां से एक दिन पूछ ही लिया कि “ मां क्या आपके साथ भी बचपन में नाना-नानी ने ऐसा ही बर्ताव किया था.” यह सुनकर शांति की मां फूट-2 कर रोने लगी और उन्होंने अगले ही दिन शांति को भी स्कूल भेजना शुरु कर दिया.
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हालांकि उपरोक्त एक कहानी है लेकिन कमोबेश यह स्थिति भारत के हर कोने में होती है पर सब शांति की तरह खुशकिस्मत नहीं होते. कई लड़कियां तो ऐसी होती है जिन्हें दुनियां में आने भी नहीं दिया जाता. भारत में कन्या भ्रूण हत्या जैसा पाप काफी समय से समाज पर एक कलंक की तरह लगा हुआ है जो आज शिक्षा के अस्त्र से भी नहीं हट रहा है. “यत्र नार्यस्तु पूजयते, रमन्ते तत्र देवता” अर्थात जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता का वास होता है, ऐसा शास्त्रों में लिखा है लेकिन विश्वास नहीं होता आज भारतीय समाज में ही इतनी कुरीतियां फैली है जिससे नारी के प्रति अत्याचारों को बढ़ावा मिला है.
जीवन की हर समस्या के लिए देवी की आराधना करने वाला भारतीय समाज कन्या के जन्म को अभिशाप मानता है. लेकिन कन्या भ्रूण हत्या में अगर देखा जाएं तो सबसे बड़ा दोष हिंदू धर्म का भी लगता है जो सिर्फ पुत्र को ही पिता या माता को मुखाग्नि देने का हक देती है और मां बाप के बाद पुत्र को ही वंश आगे बढ़ाने का काम दिया जाता है. हिंदू धर्म में लड़कियों को पिता की चिता में आग लगाने की अनुमति नहीं होती मसलन ज्यादातर लोगों को लगता है कि लड़के न होने से वंश खतरे में पड़ जाएगा. इसके साथ ही समाज में आर्थिक और सामाजिक तौर से जिस तरह समाज का विभाजन हुआ है उसमें भी लड़कियों को काम करने के लिए बाहर निकलने की अधिक आजादी नहीं है. आज भी आप देखेंगे कि लड़कियों के काम करने पर लोगों को बहुत आपत्ति होती है.
दहेज नाम का एक अभिशाप ऐसा है जो कन्या भ्रूण हत्या के पाप को और फैलाने में सहायक होता है. लड़कियों को अच्छे घर में ब्याहने के लिए लड़की वालों को हमेशा दहेज का डर सताता है और भारत जहां महंगाई और गरीबी इतनी व्याप्त है वहां कैसे कोई गरीब अपने परिवार का पेट पालने के साथ लड़की को दहेज दे सकता है. एक गरीब के लिए दहेज का बोझ इतना अधिक होता है कि वह चाह कर भी अपनी देवी रुपी बेटी को प्यार नहीं दे पाता.
लेकिन यह स्त्री-विरोधी नज़रिया किसी भी रूप में गरीब परिवारों तक ही सीमित नहीं है. भेदभाव के पीछे सांस्कृतिक मान्यताओं एवं सामाजिक नियमों का अधिक हाथ होता है. यदि इस प्रथा को बन्द करनी है तो इन नियमों को ही चुनौती देनी होगी.
कन्या भ्रूण हत्या में पिता और समाज की भागीदारी से ज्यादा चिंता का विषय है इसमें मां की भी भागीदारी. एक मां जो खुद पहले कभी स्त्री होती है, वह कैसे अपने ही अस्तितव को नष्ट कर सकती है और यह भी तब जब वह जानती हो कि वह लड़की भी उसी का अंश है. औरत ही औरत के ऊपर होने वाले अत्याचार की जड़ होती है यह कथन गलत नहीं है. घर में सास द्वारा बहू पर अत्याचार, गर्भ में मां द्वारा बेटी की हत्या और ऐसे ही कई चरण हैं जहां महिलाओं की स्थिति ही शक के घेरे में आ जाती है.
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भारत की जनसंख्या में प्रति 100 पुरुषों के पीछे 93 से कम स्त्रियां हैं, जिसका सीधा असर पड़ता है समाज के ऊपर. आज लड़कियों की कमी की वजह से शादी करने में आने वाली दिक्कतों अभी अपने शुरुआती स्तर पर हैं लेकिन आने वाले कल पर इसके प्रभाव बेहद गंभीर हो सकते हैं. समाज में कम महिलाओं की वज़ह से सेक्स से जुडी हिंसा एवं बाल अत्याचार के साथ-साथ पत्नी की दूसरे के साथ हिस्सेदारी में बढ़ोतरी हो सकती है. और फिर यह सामाजिक मूल्यों का पतन कर संकट की स्थिति उत्पन्न कर सकता है. आजकल होने वाले रेप, बलात्कार और हिंसा के बढ़ते मामले इसी चीज का परिणाम हैं.
लेकिन आज 21वीं सदी में सरकार कन्या भ्रूण हत्या को रोकने और समाज में महिलाओं को उनका स्थान दिलाने के हर कोशिश कर रही है. इसके अंतर्गत सबसे पहले गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 के अन्तर्गत गर्भाधारण पूर्व या बाद लिंग चयन और जन्म से पहले कन्या भ्रूण हत्या के लिए लिंग परीक्षण करने को कानूनी जुर्म ठहराया गया है. पी.एन.डी.टी.एक्ट 1994 के अंतर्गत प्रसव पूर्व और प्रसव के बाद लिंग चयन करना भी जुर्म है.
लेकिन इसके साथ ही गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 के अंतर्गत गर्भवती स्त्री कानूनी तौर पर गर्भपात केवल निम्नलिखित स्थितियों में करवा सकती है :
1. जब गर्भ की वजह से महिला की जान को खतरा हो.
2. महिला के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को खतरा हो.
3. गर्भ बलात्कार के कारण ठहरा हो.
4. बच्चा गंभीर रूप से विकलांग या अपाहिज पैदा हो सकता हो.
इसके साथ ही आईपीसी की धारा 313 में स्त्री की सम्मति के बिना गर्भपात करवाने वाले के बारे में कहा गया है कि इस प्रकार से गर्भपात करवाने वाले को आजीवन कारावास या जुर्माने से भी दण्डित किया जा सकता है.
धारा 314
धारा 314 के अंतर्गत बताया गया है कि गर्भपात करवाने के आशय से किये गए कार्यों द्वारा हुए मृत्यु में दस वर्ष का कारावास या जुर्माने या दोनों से दण्डित किया जा सकता है और यदि इस प्रकार का गर्भपात स्त्री की सहमति के बिना किया गया है तो कारावास आजीवन का होगा.
धारा 315
धारा 315 के अंतर्गत बताया गया है कि शिशु को जीवित पैदा होने से रोकने या जन्म के पश्चात् उसकी मृत्यु कारित करने के आशय से किया गया कार्य से सम्बन्धित यदि कोई अपराध होता है, तो इस प्रकार के कार्य करने वाले को दस वर्ष की सजा या जुर्माना दोनों से दण्डित किया जा सकता है.
लेकिन क्या आप जानते हैं इतने सारे कानून और अधिनियम होने के बाद भी भारत में ही सबसे ज्यादा कन्या भ्रूण हत्या के मामले देखने में आते हैं. सीधी सी बात है जब तक समाज के एक बड़े तबके की सोच नहीं बदलती तब तक कुछ नहीं हो सकता. अगर समाज में लड़कियों की संख्या सुधारनी है तो शिक्षा पर सबसे ज्यादा जोर देना ही होगा. और शिक्षा के साथ अपने व्यवहार से अपने छोटों और आसपास के लोगों में बच्चियों के लिए प्यार की भावना को दर्शाना होगा ताकि बाकी सब भी आपको आदर्श बना कन्याओं की इज्जत कर सकें.
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