हालांकि आजादी के बाद से ही महिलाओं की दशा सुधारने और उनके जीवन को परिमार्जित करने के उद्देश्य से कई प्रयत्न किए जा रहे हैं जिनके परिणामस्वरूप पहले की अपेक्षा आज महिलाओं की स्थिति कुछ हद तक परिवर्तित अवश्य हुई है, लेकिन यह बात कतई नकारी नहीं जा सकती कि भले ही इन कोशिशों ने महिलाओं को आर्थिक तौर पर आत्म-निर्भर बना दिया है लेकिन जिस सम्मान की वो हकदार हैं वो उन्हें अभी भी नहीं मिल सकी है. हाल के दिनों में जरूर एक सुखद बदलाव सामने आने लगा है कि महिलाओं को पुरुषों द्वारा हाशिए पर धकेल दिए जाने और उन पर आए-दिन होते अत्याचारों के विरोध में अब देश की ताकत कहे जाने वाले युवा भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित कराने लगे हैं. निःसंदेह यह भारत जैसे देश के लिए एक अच्छा संकेतक है.
विदेशों की तर्ज पर भारत में भी अब महिलाओं को एक सम्माननीय स्थान दिलवाने और बलात्कार जैसे घृणित अपराधों पर लगाम लगाने के लिए देश की राजधानी दिल्ली में बेशर्मी मोर्चा का आयोजन किया गया. इस आयोजन का मूलभूत उद्देश्य समाज में व्याप्त उस मानसिकता पर प्रहार करना था जिसके अनुसार महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले कपड़े बलात्कार जैसी घटनाओं को बढ़ावा देते हैं. हमारे समाज के ठेकेदारों का यह मानना है कि अगर किसी महिला के साथ बलात्कार किया जाता है तो उसके लिए स्वयं वह महिला ही दोषी है.
कनाडा के टोरंटो शहर से भारत पहुंचा यह बेशर्मी मोर्चा, स्लट-वॉक के नाम से दुनियां भर में अपनी पहचान स्थापित कर चुका है. वैसे तो इस मोर्चे के आयोजन का उद्देश्य भारत में यौन-हिंसा और महिला उत्पीड़न की बढ़ती वारदातों पर समाज को जागरुक करना था. इसके अलावा हर बार महिलाओं के पहनावे को निशाना बना कर उनके खिलाफ हो रहे अत्याचारों को जायज ठहराए जाने वाली सोच पर प्रहार करना भी इस मोर्चे का एक प्रमुख उद्देश्य था. उल्लेखनीय बात तो यह थी कि महिलाओं के प्रति दोहरे मापदंड अपनाने के विरोध में हुए इस वॉक को केवल महिलाओं का ही समर्थन नहीं मिला बल्कि पुरुषों ने भी इस आयोजन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
लेकिन क्या वास्तव में बेशर्मी मोर्चा जैसे आधुनिक आयोजन महिलाओं के प्रति बढ़ते अत्याचार और असम्मान की प्रवृत्ति को समाप्त कर सकते हैं ?
स्लट-वॉक या बेशर्मी मोर्चा जैसे आयोजन को समर्थन देने के लिए सैकड़ों लोग घरों से बाहर तो निकले लेकिन सिर्फ अपनी इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए कि आखिर बेशर्मी मोर्चा है क्या? उन्हें तो लगा शायद विदेशों की तरह यहां भी लड़कियां कम कपड़े पहन कर सड़कों पर उतरेंगी. हम इस बात को अनदेखा नहीं कर सकते कि किसी ने भी इस आयोजन के मर्म को समझने की कोशिश नहीं की है. लगभग आधे से ज्यादा लोग तो सिर्फ अपने कौतुहल को शांत करने आए थे, वहीं कुछ को वहां मौजूद मीडिया और ग्लैमर खींच लाया. वह महिलाओं पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने नहीं केवल तस्वीरों का हिस्सा बनने वहां पहुंचे थे. शायद ही कोई इक्का-दुक्का लोग रहे होंगे जिन्होंने महिलाओं के दर्द को समझा होगा. इस आयोजन में युवा लड़के-लड़कियों ने ही नहीं उनके अभिभावकों ने भी शिरकत की लेकिन उस दर्द को वह भी नहीं समझ पाए.
इस आयोजन के दूरगामी प्रभाव क्या होंगे यह कह पाना तो अभी संभव नहीं हैं. लेकिन बेशर्मी मोर्चा जैसे आयोजनों की व्यर्थता इस बात से ही स्पष्ट हो जाती है कि इसके आयोजक ना तो लोगों की जिज्ञासाओं का उत्तर दे पाए और ना ही समाज के समक्ष अपने मंतव्यों को स्पष्ट कर पाए. अधिकांश लोगों ने तो इसे सिर्फ पब्लिसिटी स्टंट ही समझा. वर्तमान हालातों को देखते हुए युवाओं के विषय में हमारे समाज की यह धारणा बन चुकी हैं कि वह अपने रोमांच को पूरा करने के लिए नए-नए हथकंडे अपनाते रहते हैं और यह बेशर्मी मोर्चा का आयोजन भी उसी सूची का एक हिस्सा बनकर रह गया.
इसके विपरीत अगर इस आयोजन के उद्देश्य और इसके पीछे की सोच को प्रभावी तरीके से प्रचारित किया जाता तो संभवत: यह आम जन-मानस के मस्तिष्क पर चोट कर पाता. इस मोर्चे को इस तरह प्रसारित किया गया कि यह सिर्फ महिलाओं के पहनावे और बढ़ती बलात्कार की घटनाओं से ही संबंधित है जबकि इस आयोजन के पीछे मंतव्यों का क्षेत्र बहुत विस्तृत था. यह ना सिर्फ महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले कपड़ों पर उठाई जाने वाली अंगुलियां, बल्कि उनके साथ होने वाले किसी भी तरह के भेदभाव, उत्पीड़न और हिंसा के खिलाफ आह्वान था. पर दुर्भाग्यवश यह ना तो अपेक्षित सफलता पा सका और ना ही किसी भी प्रकार का कोई प्रभाव छोड़ पाया.
एक और बात जो युवाओं द्वारा चलाए गए ऐसे आयोजनों की पोल खोलती है, वो यह कि भले ही इसका नाम बदलकर स्लट-वॉक की जगह बेशर्मी मोर्चा कर दिया हो (क्योंकि भारत के संदर्भ में स्लट-वॉक उपयुक्त नहीं लगता), इसके अलावा शायद स्लट-वॉक और बेशर्मी मोर्चा में और कोई अंतर नहीं था. भारतीय महिलाएं अगर सड़कों पर आ अपने अधिकारों की मांग कर रही हैं, तो उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वह सलीकेदार कपड़े पहन कर सभ्य महिला की छवि प्रस्तुत करें. लेकिन जैसी की उम्मीद की जा रही थी हुआ भी वही. कुछ को छोड़ कर अधिकांश महिलाएं लाइम-लाइट में आने और ग्लैमरस दिखने के लिए कम और भद्दे वस्त्र पहन कर सड़कों पर उतर आईं. माना कि यह वॉक उन्हें मनचाहे कपड़े पहनने देने की स्वतंत्रता देने के लिए चलाई गई थी लेकिन जब सार्वजनिक तौर पर भारतीय महिलाओं की उपस्थिति की बात की जाती है तो उनसे ऐसे भद्दे वस्त्र पहनने की उम्मीद नहीं की जाती.
इन्हीं सब कारणों की वजह से बजाए इसके कि यह नया प्रयोग लोगों को अपने साथ जोड़ पाता, यह सिर्फ मजाक बन कर रह गया. पुरुषों की तो बात ही छोड़ दीजिए, महिलाएं और युवा लड़कियां भी इससे संबद्ध नहीं हो पाईं.
खैर अब तो यह आयोजन हो गया. लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि पहले चरण में यह आयोजन व्यर्थ रह गया. विदेशों की और क्या नकल हमारे युवा अपनाते हैं इसका इंतज़ार उन सब महिलाओं को रहेगा, जिनके तथाकथित उत्थान और सम्मान के लिए ऐसे आयोजन किए जाते हैं. खासतौर पर वे महिलाएं जो पुरुषों की कोपदृष्टि का शिकार बन चुकी हैं, उन्हें न्याय, समानता, हक आदि कुछ मिले ना मिले, उम्मीद और अश्वासन तो मिल ही जाता है.
Read Comments