Menu
blogid : 316 postid : 861

मान-मर्यादा की खातिर क्यों दी जाती है बेटियों की बलि?

यकीनन दहेज हत्या मूल रूप से बढ़ती महत्वाकांक्षा और असीमित लालच का परिणाम होता है. भौतिक सुखों की अतिरेक चाहत व्यक्ति को अविवेकी बना रही है. स्त्री के परिवार वालों से दहेज के नाम पर भारी धन वसूली कर अपनी इच्छाओं और लालसाओं की पूर्ति करना सबसे सरल उपाय बन गया है. इसके लिए ससुराल पक्ष किसी भी हद तक जाने से परहेज नहीं करता. दहेज हत्याओं को रोकने के लिए बने कठोर कानूनों के बावजूद यदि विगत परिस्थितियों को देखा जाए तो ऐसी प्रवृत्ति पर सीधे कानून बना के नियंत्रण तो नहीं किया जा सका, लेकिन यदि समाज की मानसिकता बदलने की पुरजोर कोशिश हो तो जरूर सकारात्मक बदलाव सामने आ सकेंगे.




dowry system in India दहेज के लालच में आए-दिन होने वाली हत्याएं हमारे तथाकथित भावनात्मक समाज की नजर में मूल रूप से केवल संबंधित परिवारों के व्यक्तिगत मामले हैं. हां, अगर ऐसी छोटी-मोटी खबरों को मीडिया प्रचारित करने योग्य समझता है तो कुछ दिन तो जरूर ससुराल वालों के खिलाफ लोगों का आक्रोश भड़कने लगता है. वह मासूम युवती, जो अपने ससुराल वालों के असंतुष्ट लालची स्वभाव का शिकार बन जाती है, को भी थोड़ी बहुत सहानुभूति मिल जाती है. अगर कानून की नज़र में ससुरालपक्ष दोषी साबित हो जाए तो उन्हें दंड भी दिया जाता है और बात यहीं समाप्त हो जाती है.


अंग्रेजी की एक कहावत “द शो मस्ट गो ऑन का अनुसरण करते हुए जल्द ही सब चीज़ें पहले जैसे अपने नियमित ढर्रे पर आ जाती हैं. सबके जेहन से उन हत्यारे ससुरालवालों की हैवानियत और एक निर्दोष के जीवन के मार्मिक अंत की दास्तान पूर्णत: विलुप्त हो जाती है. दहेज के लालची नववधू का शोषण करना अपना अधिकार समझते हैं जिसका प्रयोग वह बिना किसी हिचक के करते हैं. परिणामस्वरूप ऐसी घटनाएं दोबारा हमारे सामने आती हैं और एक बार फिर हमारा हृदय उस युवती की मार्मिक और दयनीय दशा की कल्पना कर पसीज उठता है और हम पुन: ससुरालवालों को कोसना शुरु कर देते हैं.


दहेज के लोभियों को जितनी भी सख्त सजा दी जाए कम है. ऐसे घिनौने कृत्य करने वालों को समाज में रहने का भी कोई अधिकार नहीं है. लेकिन यहां एक बात जो अत्यंत गंभीर और विचारयोग्य है वो यह कि “क्या दहेज के संबंध में होने वाली ऐसी अमानवीय घटनाओं के लिए केवल ससुराल पक्ष को ही दोषी ठहराया जाना उचित है? क्या हमारा कर्तव्य केवल युवती के प्रति सहानुभूति दर्शाने से पूरा हो जाता है?


girls in India ऐसी घटना के बाद ससुराल वालों को दोषी ठहराना एक बेहद आसान और सुरक्षित विकल्प समझ में आता है. और हम हमेशा यही करते आए हैं. लेकिन एक सच यह भी है कि ऐसी घटनाओं के लिए सदियों से चले आ रहे हमारे रीति-रिवाज और परंपराएं भी समान रूप से दोषी हैं. माता-पिता संस्कार के तौर पर अपनी बेटी को यह शिक्षा देते हैं कि विवाहोपरांत उसका ससुराल ही उसका घर है. साथ ही उसे आगाह भी कर दिया जाता है कि अगर वहां कोई ऊंच-नीच हुई तो उस बेटी, जिसने अपना पूरा जीवन अपने अभिभावकों के साए तले गुजार दिया, के लिए उनके घर में कोई स्थान नहीं होगा. ऐसी सीख लिए युवती को जब दहेज उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है तो चाहे जो हो वह अपने माता-पिता के संस्कारों को नहीं गिरने देती. माता-पिता भी ससुरालवालों की मांगों के आगे अपना सिर झुका लेते हैं और अपनी बेटी को उसके हाल पर छोड़ देते हैं. दिन के उजाले में भले ही उसका दर्द सबसे छुप जाता हो, लेकिन रात के अंधेरे में जब उसका क्रूर पति और ससुराल वाले उस पर कहर बरसाते हैं तो फिर उस नववधू के पास कोई विकल्प ही नहीं होता. वह मन मार कर अपने मायके के सम्मान की वेदी पर बलि होती रहती है.


ऐसा नहीं है कि दहेज उत्पीड़न और हत्याएं केवल गरीब और अशिक्षित तबके से ही संबंधित हैं. हाल ही में हुई गुड़गांव के एक संपन्न और तथाकथित संभ्रांत परिवार संबंधित एक युवती की दहेज लोभी पति द्वारा की गई हत्या और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट जिसके मुताबिक 39% भारतीय महिलाएं जिनका विवाह अनिवासी भारतीयों (NRI) के साथ किया जाता है वह अपने माता-पिता की उपेक्षा और पति के अत्याचारों को सहन करती हैं, इस बात को प्रमाणित करती है कि लालच किसी विशेष वर्ग से संबंध नहीं रखता.


ऐसी प्रतिदिन होने वाली घटनाएं हमें अपने प्राचीन और जड़ हो चुके मान्यताओं को बदलने की जरूरत की ओर इशारा करती हैं. साथ ही यह भी एहसास दिलाती हैं कि अब समय आ गया है कि पारिवार की खोखली इज्जत बचाने के लिए बेटियों की बलि लेने की परंपरा को समाप्त कर दिया जाए. आखिर कब तक सामुदायिक हित के सामने वैयक्तिक जीवन के मोल को नकारा जाएगा?


दहेज तक बात सीमित होती तो शायद इसे एक अलग मुद्दा कहा जा सकता था. क्योंकि दूसरा परिवार बेटी को कैसे रखेगा इसका अंदाजा अभिभावकों को नहीं होता. लेकिन बेटी की बलि चढ़ने का सिलसिला ससुराल में ही नहीं शुरु होता. बल्कि कई ऐसे अभिभावक भी हैं जो चंद रूपयों के लालच में अपनी बेटी को किसी के हाथों बेच देते हैं. भले ही उन रूपयों से उनकी मूलभूत जरूरतें पूरी होती हों लेकिन क्या पारिवारिक जरूरतों की पूर्ति बेटी के सम्मान और उसकी आकांक्षाओं को समाप्त कर की जानी उचित है? क्यां उस मासूम का अपने जीवन पर कोई अधिकार नहीं हैं?


वहीं दूसरी ओर युवावस्था में कई लड़कियां अपने रिश्तेदारों और करीबियों की हैवानियत का शिकार बन जाती हैं लेकिन उसे परिवार की मान-मर्यादा की दुहाई देकर चुप करा लिया जाता है. ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या परिवार वालों की विवशता को समझना एक बेटी की ही जिम्मेदारी है? परिवार वालों का अपने बेटी की हालत और उसकी दुर्दशा को ना समझना कहॉ तक सही कहा जाएगा?



Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh