सामाजिक अनुदारता एक ऐसा विषय है जिस पर आधुनिक काल में गहरा विमर्श होता रहा है. समाज के अलग-अलग वर्गों में अपने-अपने वर्गों के हितों को निरंतर पुख्ता करने की चेष्टा चलती रहती है. कोई भी एक सामाजिक समुदाय दूसरे समुदाय के प्रति एक विभेदात्मक रवैया बनाए रखता है और उसकी कोशिश अपने वर्गीय हितों को साधने की होती है. इतना ही नहीं, कई बार जब समाज में उदारता की कमी होती है तो ऐसे समाजों में प्रायः दूसरे वर्ग के हितलाभ का अतिक्रमण करने की कोशिशें होती हैं और यह बात समुदायों के बीच तनाव और संघर्ष का कारण बनता है.
भारत में जातीय विभाजन का स्तर काफी बड़ा है और समाज से ज्यादा राजनीति ने इस विभाजन में संघर्ष का बीज पैदा कर दिया है. हालांकि ये विभाजन पश्चिमी रंग भेदीय नस्लीय विभाजन की तरह घृणा पर आधारित नहीं रहा है लेकिन आधुनिक विकृत पॉलिटिक्स ने जरूर इसे घृणा की ओर मोड़ने में जबर्दस्त भूमिका निभाई है. यहॉ एक बात पर ध्यान दिया जाना जरूरी है कि जाति और जातीय विभाजन दो अलग दृष्टिकोण हैं और दोनों को अलग-अलग करके देखना ही सही तथ्यों को उद्घाटित करता है. जब भी हम दोनों के बीच फर्क को खत्म करके देखते हैं तो हम स्वयं व्यवस्था के दुष्चक्र के शिकार हो जाते हैं.
भारतीय समाज में अन्य समाजों की तरह ‘जाति’ संघर्ष के कारण तब तक नहीं बने जब तक कि इसमें क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने के लिए व्यक्तिगत/सामुदायिक स्वार्थ नहीं जुड़े. वरन, भारतीय समाज में जाति ने सामाजिक समरसता कायम करने और संरक्षित रोजगार संरचना के बेमिसाल गुणों के कारण आरंभ से ही खासा योगदान दिया है.
इसीलिए जब तथाकथित आधुनिक उदारवादी बुद्धिजीवी इस संरचना की निंदा इन बहुमूल्य प्रदायों पर ध्यान दिए बिना करते हैं तो उनकी मंशा पर सन्देह होना जायज है.
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