स्त्री और पुरुष के बीच नैसर्गिक भेद होना तो प्रकृति द्वारा ही तय कर दिया है लेकिन उनमें मूलभूत फर्क एक-दूसरे के पूरक के रूप में काम करने के लिए ही रखे गए. किंतु समाज में पौरुष बल की प्रधानता के कारण महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष ना रखकर उन्हें निचले पायदान पर रखा गया. लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं होती, क्योंकि महिलाओं को ना सिर्फ सैद्धांतिक रूप में निचला स्थान दिया गया है बल्कि उन्हें हर समय और हर पड़ाव पर यह अहसास भी करवाया जाता है कि परिवार और समाज दोनों ही में उनका महत्व पुरुषों से कम है. यह सिलसिला बेटी के जन्म से प्रारंभ होता है और उम्रभर उसके साथ-साथ चलता है.
अपने ही माता-पिता द्वारा बेटा और बेटी के साथ होता भेदभाव हमारे भारतीय समाज की एक विशेष पहचान बन चुका है. जिसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अभिभावक अपनी बेटियों को घर का सदस्य नहीं बल्कि पराये व्यक्ति के रूप में देखते हैं जिन्हें एक ना एक दिन घर से चले ही जाना है. इसीलिए उनके पालन-पोषण में ज्यादा दिलचस्पी नहीं ली जाती.
हमारे समाज में विवाह नामक संस्था बहुत महत्व रखती है और वैवाहिक परंपरा के अनुसार बेटियों को विवाह के पश्चात अपने अभिभावकों का घर छोड़कर पति के स्थान पर चले जाना होता है. निश्चित तौर पर यह परंपरा बहुत सोच-विचार कर बनाई गई हो सकती है. लेकिन इस व्यवस्था के कारण बेटियां अपने ही माता-पिता के लिए पराई हो जाती हैं. जब तक वह अपने अभिभावकों के घर पर रहती हैं वह उनके लिए किसी और की अमानत ही होती हैं. इसीलिए हर माता-पिता की यह ख्वाहिश रहती है कि वह जल्द से जल्द इस अमानत को उसके स्थायी संरक्षक के पास भेज दें. माता-पिता अपनी बेटी को एक अच्छी और आज्ञाकारी बेटी बनने की सीख नहीं एक आज्ञाकारी और योग्य बहु बनने की सीख देते हैं ताकि विवाह के पश्चात उनकी बेटी पति और ससुराल वालों के कहने पर चले और उनकी हर इच्छा को पूरा करे. यही कारण है कि उसके अपने माता-पिता उसकी शिक्षा-दीक्षा और व्यक्तिगत अपेक्षाओं को दरकिनार कर उसमें केवल एक अच्छी बहु के गुण विकसित करने की कोशिश करते हैं. परिवार के बेटे को जहां सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया जाता है वहीं बेटियों को बस अपनी एक जिम्मेदारी ही समझा जाता है और उसके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाता है. विवाह से पहले जहां वह पूर्ण रूप से अपने पिता पर निर्भर रहती है वहीं विवाह के पश्चात अपनी हर छोटी-बड़ी जरूरतों के लिए उसे अपने पति पर आश्रित रहना पड़ता है.
आमतौर पर यही देखा जाता है कि माता-पिता अपनी बेटियों को किसी दूसरे की अमानत, पराया धन आदि संज्ञाओं से नवाजते हैं.वहीं विवाह के पश्चात भी ससुराल वाले उसे दूसरे घर से आई हुई ही समझते हैं. ऐसे में वह लड़की अपनी वास्तविक पहचान के लिए संघर्ष करती है और यह संघर्ष उम्रभर चलता है. लेकिन इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि उसका उम्रभर लंबा यह संघर्ष अंत तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाता. वह कभी इस प्रश्न का उत्तर नहीं खोज पाती कि जिस माता-पिता ने उसे जन्म दिया अगर वह उनके लिए ही किसी दूसरे की अमानत है तो उसका उसका अपना घर और परिवार कौन सा है?
हालांकि समय बदलने के साथ-साथ बेटियों की शिक्षा और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का सिलसिला भी शुरू हुआ है इसके अलावा उनके प्रति माता-पिता और समाज के दृष्टिकोण में थोड़ी बहुत तब्दीली आई है. लेकिन यह सिर्फ कुछ क्षेत्रों और परिवारों तक ही सीमित है. क्योंकि आज भी अधिकांश परिवारों में बेटियां अपने अभिभावकों के लिए अपनी नहीं हैं जिसके परिणामस्वरूप बेटियों के उत्थान के लिए कोई खास प्रयास नहीं किया जाता. उनके पृथक औचित्य को स्वीकार करना आज भी बहुत से परिवारों के लिए महत्वहीन है.
अभिभावक हो या फिर ससुराल पक्ष दोनों में से कोई भी उसे आत्मीयता और लगाव के साथ स्वीकारने में दिलचस्पी नहीं दिखाता और बात फिर वहीं की वहीं पहुंच जाती है कि “यदि उसके माता-पिता ने उसे अपना समझा होता, उसके अस्तित्व को स्वीकारा होता तो उसे कभी अपनी पहचान के लिए संघर्ष ना करना पड़ता और ना ही उम्रभर इस विचार से उलझना पड़ता कि वह किसके लिए अपनी है और किसके लिए पराई.”
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