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पढ़िए भूतों की बस्ती में तब्दील हुए एक गांव की हैरान कर देने वाली हकीकत

विस्थापन का दर्द वही समझ सकता है जो इसे झेल चुका हो. कोई भी शायद बिना मजबूरी के अपनी मातृभूमि नहीं छोड़ना चाहता फिर भी हर दौर में विश्व के अलग-अलग हिस्से से लोग अलग-अलग कारणों से विस्थापित होते रहें हैं, होते रहेंगे. इन कारणों में बेहतर अवसर की तलाश, बाढ़, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा या युद्ध, खनन, बांध के निर्माण जैसी मानव जनित आपदा शामिल रहती हैं. पर विस्थापन का कारण दीमक हों तो इसे आप क्या कहेंगे?


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यह कहानी किसी एक या दो घर की नहीं बल्कि एक पूरे गांव की है. त्रासद है पर उत्तराखंड के अलमोरा जिले का एक गांव, लंबरी आज दीमकों की वजह से भूतहा सा हो गया है। ये छोटे-छोटे दैत्य कई गांववालों के घर निगल चुकें हैं जबकि कई घरों को आहिस्ता-आहिस्ता निगलते जा रहे हैं. गांव में घुसते ही आपका स्वागत 15 से अधिक परित्यक्त घरों के मंजर से होता है जिन्हें दीमकों ने खा-खाकर खंडहर बना दिया है.


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इस गांव में करीब 40 परिवार रहते हैं जिनमें से अधिकतर गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं. गांववालों का मुख्य व्यवसाय खेती, मजदूरी और पशुपालन है. गांव के निवासी पदम सिंह रावत बताते हैं कि, “90 के दशक के अंत तक यहां करीब 65 परिवार रहा करते थे पर दीमकों के आतंक के कारण गांव में मुश्किल से 40 परिवार ही बचे हैं.


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दीमकों से परेशान होकर पिछले साल 9 परिवार लंबरी गांव से 1 किलोमीटर दूर दिबा दहिया नामक स्थान को पलायन कर गए थे. हालांकि नए स्थान पर उन्हें पानी की किल्लत का सामना करना पड़ रहा है फिर भी वे खुश हैं कि उन्हें कम से कम दीमकों से तो निजात मिल गई. इससे पहले यहां के कई निवासी उत्तराखंड के अलग-अलग शहरों को पलायन कर चुकें हैं और कई करने को तैयार बैठे हैं पर गरीबी उनके आड़े आ रही है.


रात के सन्नाटे मे जब गांव के लोग अपने-अपने घरों में सिमटे रहते हैं ऐसे में इन कीटों द्वारा लकड़ी के चबाने की आवाज यहां के निवासियों को खौफजदा करती है. इन कीटों का प्रकोप बरसात के दिनों  में और बढ़ जाता है. स्थिति की गंभीरता का समझते हुए 2009  में गोविंद बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय ने इस गांव का मुआयना किया था और अपनी अंतिम रिपोर्ट में विशेषज्ञों की टीम ने ढ़ेरों उपाय सुझाए थे.


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इन उपायों में से एक उपाय था घरों के आसपास गोबर न जमा करना. विशेषज्ञों ने गांववालों को घरों के निर्माण सें लकड़ी के बजाए लोहे की संरचना प्रयोग करने की भी सलाह दी थी. पर गांववालों को अपने गरीबी के मद्देनजर यह उपाय व्यवहारिक नहीं लगता. गौरतलब है कि पहाड़ों पर लोग गृह निर्माण में असानी से उपलब्ध लकड़ी का प्रयोग करते हैं. वहीं घरों को प्लास्टर करने के लिए गोबर और मिट्टी प्रयोग में लाई जाती है.


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एक अन्य ग्रामीण राजेश सिंह बिष्ट का कहना है कि, “कोई भी उनके गांव की जमीन खरीदने को तैयार नहीं है. राज्य सरकार को उनकी सहायता के लिए आगे आना चाहिए नहीं तो वे जल्द ही बेघर हो जाएंगे.”

गांव की हालत देख इन कीटों को मारने के लिए महंगे कीटनाशक खरीदने में असमर्थ यहां के निवासियों का यह डर बेवजह नहीं लगता कि दीमक जल्द ही उनके गांव का अस्तित्व मिटा देंगे.


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