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बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने में सहायक होता है मां का कामकाजी होना

working motherबदलते परिवेश तथा वर्तमान हालातों के मद्देनजर यह कहना कदापि गलत नहीं होगा कि लंबे समय तक घर की चारदीवारी में जकड़ी रहने के बाद आज के दौर की महिलाओं में स्वावलंबन की चाह विस्तृत होने लगी है. इसके परिणामस्वरूप पहले जिन महिलाओं को अपनी हर छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए परिवार के पुरुष सदस्यों पर आश्रित रहना पड़ता था, आज वह अपनी आवश्यकताओं के साथ-साथ परिवार और पति को भी आर्थिक रूप से सहायता प्रदान कर रही हैं.


पहले जहां महिलाओं को बंदिशों में रखा जाता था, आज भले ही उन्हें काम करने की आजादी दे दी गई हो लेकिन इतने भर से उनकी स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती. हमारे पुरुष प्रधान समाज को हमेशा महिलाओं की उन्नति और प्रगति अखरती आई है. आज भी समाज ये मानता है कि कामकाजी महिलाएं अपना अधिकांश समय बच्चों से दूर ऑफिस में बिताती हैं इसीलिए वह कभी अच्छी मां नहीं बन सकतीं. नि:संदेह अगर किसी भी महिला पर ऐसे आरोप लगाए जाएं तो यह उसे मानसिक और भावनात्मक रूप से बहुत अधिक आहत करता है.


कामकाजी महिलाओं के विषय में ऐसा मान लेना कि वह केवल स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित होकर परिवार और बच्चों की अनदेखी करती हैं, किसी भी रूप में सही नहीं कहा जा सकता. क्योंकि जहां संपन्न वर्ग की महिलाएं अपनी अलग पहचान स्थापित करने के लिए स्वतंत्र रूप से काम करती हैं तो मध्यम और निम्न वर्ग की कई महिलाएं ऐसी भी हैं जो बढ़ती महंगाई के कारण अपने परिवार की जरूरतों और बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए बाहर जाकर काम करने का निर्णय करती हैं. दोनों ही कारण गलत नहीं हैं. क्योंकि आज की महिलाएं शिक्षित और अपने कॅरियर को लेकर जागरुक हैं और उनकी यह सजगता किसी भी नजरिए से गलत नहीं कही जा सकती.


महिलाओं का बाहर जाकर काम करना उनके व्यक्तित्व को निखारने के साथ-साथ उनके बाहरी दुनियां से संपर्क को भी बढ़ाता है, जिसके परिणामस्वरूप उनके लिए आय और रोजगार के कई नए अवसर खुल जाते हैं. लेकिन हम इस बात को कतई नकार नहीं सकते कि उनकी आय का फायदा निश्चित रूप से उनके परिवार और बच्चों को ही मिलता है. कामकाजी महिलाओं की आलोचना करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि भले ही विवाह से पहले महिलाओं के ऊपर कोई खास जिम्मेदारी ना हो, जिसकी वजह से वह अपना सारा ध्यान कॅरियर और ऑफिस पर केंद्रित कर सकती हैं, लेकिन उसी महिला को विवाह के बाद अपने ऑफिस की जिम्मेदारियां उठाते हुए घर-परिवार और बच्चों को भी देखना होता है. इस प्रकार उन्हें एक नहीं तीन जिम्मेदारियां उठानी पड़ती हैं. लेकिन वे अपनी प्रत्येक जिम्मेदारी का निर्वाह बड़ी ही सहज ढंग से पूरे लगन से करती हैं. आजकल के प्रतिस्पर्धा प्रधान युग में वह शिक्षा के महत्व को अच्छी तरह समझती हैं. इसीलिए वह चाहती हैं कि उनका बच्चा भी अच्छे स्कूल कॉलेज में जाकर एक सफल व्यक्ति बने. बढ़ती महंगाई से ग्रस्त आजकल के दौर में अगर कोई परिवार अपने बच्चे के बेहतर कल के लिए सपने देखता है तो पति-पत्नी दोनों को ही काम करना जरूरी हो जाता है.


अगर आप ऐसा सोचते हैं कि वे महिलाएं जो बाहर जाकर काम करती हैं, अपने बच्चों की शिक्षा और उनकी जरूरतों पर ध्यान नहीं देतीं तो आपको यह जानकर हैरानी जरूर हो सकती है कि कामकाजी महिलाओं के बच्चे, अपेक्षाकृत अधिक आत्म-निर्भर और शिक्षित होते हैं. माना जाता है कि बच्चे को आरंभिक शिक्षा परिवार और माता-पिता के द्वारा ही दी जाती है. वह वही सीखता और करता है जो वह अपने परिवार में देखता है. यदि उसने शुरू से ही अपने पिता और मां दोनों को ही शिक्षित और आत्मनिर्भर बन अपने पैरों पर खड़े हुए देखा है तो परिणामस्वरूप उसके भीतर भी शिक्षा के प्रति रुझान और आत्म-निर्भरता की चाह बढ़ने लगती है. वह बचपन से ही अपने छोटे-छोटे काम खुद ही करना सीख जाता है, जो आगे चलकर उसकी काफी हद तक सहायता करते हैं. उसे यह ज्ञात हो जाता है कि अपने पैरों पर खड़े होने और समाज में प्रतिष्ठापूर्ण जीने के लिए शिक्षित होना बहुत जरूरी है. इतना ही नहीं महिलाओं का बाहर जाकर काम करना उनके बच्चे और उनके बीच भावनात्मक नजदीकी को और अधिक बढ़ा देता है. विशेषकर लड़कियों में यह प्रवृति अधिक देखने को मिलती है कि वह ऑफिस से लौटकर अपनी मां के साथ रसोई में खाना बनाती हैं साथ ही अपने परिवारजनों की भी जरूरतों का भी ध्यान रखती हैं. इसके विपरीत वे बच्चे इतनी जल्दी आत्मनिर्भर नहीं बन पाते जिनकी माताएं उन्हें संरक्षण देने और उनकी हर जरूरत को पूरा करने के लिए हर समय उनके साथ रहती हैं. अपनी हर छोटी से छोटी जरूरत को पूरा करने के लिए वह काफी लंबे समय तक अपने परिवार पर ही आश्रित रहते हैं.


इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि वैसे तो हम पति-पत्नी को दांपत्य जीवन के दो पहिए कहते हैं जिन्हें कथित तौर पर समान उत्तरदायित्व और अधिकार दिए गए हैं. लेकिन जब बात परिवार और बच्चों के प्रति जिम्मेदारी निभाने की आती है तो पुरुष खुद को इन सबसे काफी ऊपर समझने लगते हैं. आज भले ही महिलाएं स्वयं को ऐसी परिस्थितियों में ढाल लें जिसमें वे अपने बच्चों और परिवार को संभालने के अलावा गृहस्थी को सुचारू रूप से चलाने के लिए पति को वित्तीय सहायता भी प्रदान करें लेकिन पुरुष कभी अपनी पत्नी की पारिवारिक जिम्मेदारियों को कम करने के बारे में सोच नहीं सकता है. अगर वह इस विषय में गंभीरता पूर्ण विचार करे और अपनी पत्नी की जिम्मेदारियों और उसकी भावनाओं को भी उतना ही सम्मान दे तो महिलाओं के विषय में ऐसी भ्रांतियां स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी.


जब महिलाओं को प्राकृतिक रूप से पुरुषों की अपेक्षा अधिक भावुक माना जाता है तो ऐसे में हम ऐसा कैसे सोच सकते हैं कि वे महिलाएं अपनी ही संतान के प्रति उदासीन हो जाएंगी. वह अपनी जिम्मेदारियों को सही ढंग से निभाना जानती हैं. इतना ही नहीं महिलाओं के कामकाजी होने का एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि इससे वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन अपने परिवार को तो सहायता देती ही हैं, साथ ही उनके शिक्षित होने और अपने अधिकारों के प्रति सजग हो जाने के कारण घरेलू हिंसा से जुड़े आंकड़ों में भी कमी देखी गई है.


उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि मां का कामकाजी होना बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए बेहतर ही है. उनके बाहर जाकर काम करने से परिवार की विभिन्न जरूरतों की पूर्ति तो होती ही है साथ ही बच्चे को भी अच्छी शिक्षा हेतु बेहतर सुविधाएं प्राप्त हो जाती हैं. हमें यह मानसिकता त्याग देनी होगी कि कि जो महिलाएं काम करती हैं,  वे अपने बच्चों से प्यार नहीं करतीं. वास्तविकता यह है कि वे अपने परिवार और बच्चों के लिए ही तो काम करती हैं.


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