जब आग की लपटों ने उसे अपने अंदर समेटा तो वो चीखी होगी, चिल्लाई होगी, उसने मदद के गुहार लगाई होगी, लेकिन जबतक कोई आता तब तक बहुत देर हो चुकी थी. उसका चेहरा, उसका अस्तित्व जलकर ‘स्वाहा’ हो गया था…
ज़ुबेदा हसन, वो सिर्फ नौ साल की थी जब उसकी जिंदगी ने उसके साथ इतना बड़ा खिलवाड़ किया. उस मासूम बच्ची को तो पता भी नहीं था कि वो क्या करने जा रही है और उसके साथ क्या हो जाएगा.
उस दिन तड़प उठी थी ज़ुबेदा
अगस्त 2001, एक ऐसा दिन जो उस बच्ची की जिंदगी के लिए खौफनाक मंजर लेकर आया था. यह तब की बात है जब ज़ुबेदा केवल नौ साल की थी और घर के रसोईघर में किसी काम से पहुंची थी. उसके पास मिट्टी का तेल था और वो उस तेल को खाना पकाने वाले चूल्हे में डालने ही जा रही थी लेकिन इस बात से अनजान थी कि इसके बाद क्या होगा. दरअसल वो चूल्हा पहले से गर्म था और जैसे ही उसने मिट्टी का तेल चूल्हे में डाला तो एक जोरदार धमाका हुआ.
उसका चेहरा, गर्दन, छाती व बाजू सब जल गया. उसके चिल्लाने की आवाज़ सुन उसके पिता दौड़े-दौड़े आए. किसी तरह से उन्होंने आग तो बुझा दी लेकिन तब तक ज़ुबेदा का बदन बहुत भयंकर रूप से जल गया था.
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कोशिश तो बहुत की थी लेकिन…
वे दौड़ कर ज़ुबेदा को पास के अस्पताल लेकर गए जहां उसे मलहम लगाई गई फिर भी दर्द कम नहीं हुआ. कुछ समय बाद जब ज़ुबेदा के पिता को यह एहसास हुआ कि बेटी का दर्द इतनी कोशिशों के बाद भी कम नहीं हो रहा है तो वे ज़ुबेदा को लेकर ईरान चले गए.
ज़ुबेदा 20 दिन तक ईरान के एक अस्पताल में भर्ती रही और फिर उसे वहां से छुट्टी मिल गई. वो वहां से आ तो गई लेकिन एक बड़े दर्द के साथ क्योंकि वहां पर जिंदगी देने वाले डॉक्टरों ने ही ज़ुबेदा को घर लेजाकर मरने के लिए छोड़ने को कह दिया. उन्हें उसके दर्द को कम करने का कोई भी उपाय नहीं मिल रहा था.
उसकी हालत हो रही थी गंभीर
जब कोई उपाय नहीं दिखा तो ज़ुबेदा के पिता उसे घर वापिस ले आए. उसकी हालत और भी खराब हो रही थी. जला हुआ हिस्सा दिन प्रतिदिन बद से बदतर हो रहा था. आप खुद तस्वीर में देख सकते हैं कि कैसे उसके चेहरे का निचला भाग उसके गर्दन के जले हुए भाग से मिल गया है. उसके लिए चेहरा उठाकर ईधर-उधर देखना भी मुश्किल सा हो गया था.
और फिर दिखी एक उम्मीद की किरण
ज़ुबेदा एक ‘बंजारा’ प्रजाती वाले परिवार से थी. उसके घर में उसके पिता, माता व आठ भाई-बहन थे. वे लोग अफ्गानिस्तान के ‘फराह’ प्रांत के रहने वाले थे. इतना बड़ा परिवार और गरीबी की मार ने ज़ुबेदा के ठीक होने की उम्मीद को और भी कम कर दिया था लेकिन वो कहते हैं ना कि ‘भगवान के घर देर है लेकिन अंधेर नहीं’.
साल 2002, फरवरी में वो एक दिन ज़ुबेदा की जिंदगी में शायद रोशनी की किरण लेकर आया था. एक स्थानीय दुकानदार की सलाह पर ज़ुबेदा के पिता उसे लेकर काबुल में स्थित अमरीकी सेना बेस में मदद की गुहार लगाते हुए पहुंचे. वहां उनकी मुलाकात अमरीकी सेना के जाने माने डॉक्टरों से हुई. ज़ुबेदा की ऐसी हालत देख उन्होंने उसकी मदद करने की ठानी और अमरीका में स्थित कुछ डॉक्टरों से संपर्क किया. कुछ कोशिशों के बाद ज़ुबेदा को अमरीका ले जाया गया.
वो शायद भगवान बनकर उसकी जिंदगी में आए
ज़ुबेदा बहुत गरीब परिवार से थी इसलिए अमरीका की ‘चिल्ड्रेंस बर्न फाउंडेशन’ ने उसका इलाज अपने जिम्मे ले लिया. इलाज के दौरान ज़ुबेदा को एक ही साल में कुल 12 सर्जरियों से होकर गुजरना पड़ा. लेकिन इस तमाम ऑप्रेशन के बाद ज़ुबेदा के अंदर वो सम्मान लौटकर वापिस आ रहा था. अब वो धीरे-धीरे ठीक हो रही थी. उसका चेहरा भी काफी हद तक सुधर गया था. अब दाग कम हो गए थे.
सिर्फ इलाज ही नहीं उन्होंने ज़ुबेदा के पढ़ने-लिखने व उसकी जिंदगी को संवारने में भी भरपूर मदद की. वहां उसने 12 हफ्तों के भीतर अंग्रेजी सीखी और कुछ अच्छे दोस्त भी बनाए. अमरीका में ही अपने 11वें जन्मदिन पर ज़ुबेदा ने ऐलान किया कि वो बड़ी होकर बाल चिकित्सिक बनेगी और लाचार व जरूरतमंद बच्चों को दिल से मदद करेगी.
फिलहाल ज़ुबेदा अपने घर अफ्गानिस्तान में रह रही है और आज भी उसे अपनी जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए एक सहारे की जरूरत है. वो अपना सपना पूरा करना चाहती है, बस जरूरत है तो एक सहारे की क्योंकि इतनी गरीबी उसके सपने को तोड़ सकती है.
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