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जहर सिर्फ खाने में नहीं दिमाग में भी हो सकता है

मिड डे मील की योजना कमजोर आय वर्ग के बच्चों को समान रूप से पोषण देने के लिए शुरू की गई थी. बच्चे देश का भविष्य होते हैं और इसी भविष्य को संवारने के लिए शिक्षा और पोषण की मूलभूत जरूरत को पूरा करने के लिए ये योजनाएं कार्यान्वित की जाती हैं. पर बिहार में हाल में जो मिड डे मील की योजनाओं का हाल दिखा है वह बहुत दुखदाई है. यहां इसका आशय सरकार की योजनाओं में कमी निकालना या उसकी अक्षमता सिद्ध करना नहीं है. पहले बिहार के सारण में मिड डे मील योजना का जहरीला खाना खाकर 22 बच्चों की मौत और फिर दूसरी जगह भी कुछ इसी तरह की घटना का दुहराया जाना बड़ा सवाल पैदा करता है.


राज्य सरकार की क्षमता या अक्षमता को आंकने का मुद्दा बस राजनीतिक हलकों में ही हो सकता है, सामाजिक परिवेश में तो उन मां-बाप से जाकर पूछिए जो रोज अपने बच्चों को यह सोचकर स्कूल भेजते हैं कि उनके बच्चे पढ़ने जा रहे हैं और वहां उन्हें पढ़ने के साथ-साथ दिमाग और शरीर के विकास के लिए खाना भी मिलेगा. सोचिए जरा उन मां-बाप का जिन्होंने उस दिन भी अपने बच्चों को इसी उम्मीद के साथ स्कूल भेजा होगा पर उज्ज्वल भविष्य मिलना तो दूर, उन बेचारों ने तो अपना भविष्य ही खो दिया. पर उनके भविष्य का क्या, उनके उज्ज्वल भविष्य के साथ देश के भविष्य का क्या, यहां तो बस एक बड़ा मुद्दा है चुनाव का, चुनाव में वर्तमान सरकार की अक्षमता साबित कर अपने लिए सरकार में आने की जमीन तैयार करने का.


सरकारी योजनाओं की दशा आज कोई नई बात नहीं है. बात सिर्फ बच्चों के विकास के लिए शुरू की गई योजनाओं की नहीं है, विकास की किसी भी दिशा में, किसी भी धारा के लिए शुरू की गई योजनाओं का हाल अक्सर ऐसा ही देखने में आता है. कुछ देर के लिए हाल की मिड डे मील में हुए हादसों की बात छोड़ते हैं, अन्य सरकारी योजनाओं के हश्र की बात भी छोड़ देते हैं. एक नजर आज के राजनीतिक माहौल पर डालते हैं. पिछले कुछ दिनों से जब से नरेंद्र मोदी भाजपा की प्राथमिकताओं में शामिल हुए हैं, ऐसा लगता है देश की राजधानी दिल्ली और बिहार की राजनीति जुड़ सी गई हो. वस्तुत: केंद्र में मोदी के प्रतिपक्ष में खड़े नजर आने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं. उसके बाद तो जैसे केंद्र और बिहार की राजनीति में एक साथ उछालें देखने को मिलीं. यहां तक कि अगले चुनाव में पर्टियों के गठबंधन तक के कयास लग गए. मोदी और नीतीश का अलगाव और एक-दूसरे के लिए नापसंदगी जगजाहिर है. पर आज अचानक ऐसा लग रहा है जैसे बिहार पर मुश्किलों का पहाड़ टूट पड़ा हो.


एक के बाद एक मुश्किलें आती ही जा रही हैं. पहले बोधगया में सीरियल ब्लास्ट, फिर मिड डे मील में जहर का हादसा, फिर नक्सली हमला, जैसी मुश्किलों का एक सिलसिला चल पड़ा हो. सोचने वाली बात यह है कि अचानक ये हालात पैदा कैसे हुए? क्या इतने सालों से काम कर रही और अपने अच्छे काम का डंका पीट रही नीतीश सरकार अचानक मोदी से मनमुटाव करने के बाद, भाजपा का गठबंधन छोड़ने के बाद, ऐन चुनाव के मौके पर निकम्मी हो गई है? क्या कोई सरकार इतनी बेवकूफ है कि अपने कार्यकाल के अंत में, चुनाव के ठीक पहले अपने प्रतिद्वंद्वियों को अपनी टांग खिंचाई का ऐसा मौका देगी? कोई बेवकूफ भी सिरे से इसे नकार देगा. हालांकि माहौल कुछ ऐसा ही दिख रहा है.


सच्चाई की जमीन हमेशा सख्त होती है. भ्रष्टाचार कोई नया मुद्दा नहीं है, न अचानक से सामने आई कोई बड़ी सच्चाई है. सबको पता है कि राजनीति की धुरी के साथ, चाहे इसे सुधार योजनाओं के साथ जोड़ें या किसी और योजना के साथ, भ्रष्टाचार हमेशा पिछलग्गू की तरह इसके साथ घूमता है. इस सच्चाई से न कोई सरकार इंकार कर सकती है, न ही आम जनता इस सच्चाई से बेखबर है. पर भ्रष्टाचार की धुरी पर जब आम जिंदगियां और जानें मिटने लगें तो यह कहीं से भी बर्दाश्त करने लायक नहीं हो सकता, जो अभी हो रहा है.


मिड डे मील में 22 बच्चों की मौत के बाद आम जनता में जितना सरकार की लापरवाही का रोष नहीं दिख रहा था उससे कहीं ज्यादा राजनीतिक पार्टियां सरकार की लापरवाही के लिए उसकी टांग खींचती नजर आईं. इतने बच्चों के बेमौत मरने का दुख कहीं नजर नहीं आया, चिल्ला-चिल्ला कर सरकार की लापरवाहियां दिखाने वाले लोग हर तरफ नजर आए. शर्म किसी को आती नहीं, लाशों पर राजनीति की बिसातें बिछाई जा रही हैं. हालांकि यह कोई नई बात नहीं है, अप्रत्याशित नहीं है, पर बिहार में आम जिंदगियों के दोहन के साथ इसकी राजनीति में आए तूफान के कारणों पर शक होता है. सरकारों की लापरवाहियां कोई नई बात नहीं है, बोधगया में सुरक्षा में ढील हुई होगी इसमें भी कोई नई बात है, मिड डे मील में जितनी योजनाएं दिखाई जाती हैं, जितने पौष्टिक और सुस्वादु भोजन बच्चों के लिए कागजों पर दिखाए जाते हैं उसमें गड़बड़ियां बहुत हैं यह भी सच है, पर जानबूझकर कोई सरकार अपनी किरकिरी करवाने के लिए जानते हुए भी बोधगया में हमले हो जाने देती है, बच्चों को जहरीला खाना खिलाने वाले स्टाफ स्कूल में रखती है, यह बात गले से नीचे उतरना मुश्किल है जरा.


सच क्या है, यह तो अभी किसी को नहीं पता. पर अगर यह छिछली राजनीति का कोई हिस्सा है तो सिर्फ निंदनीय नहीं, घोर अपराध है. सजा का पात्र है. बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ है. देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ है. ऐसे नेता तो नक्सलियों से भी बड़े अपराधी हैं. ऐसे नेताओं को राजनीति तो क्या, देश निकाला दे दिया जाय तो भी कम है. पर हकीकत क्या है, कोई नहीं जानता. जो भी हो, ऐसे वाकये राजनीति के घिनौने सच को बेपर्दा करने वाले तो साबित होते ही हैं लेकिन इसमें पिसती हैं आम जिंदगियां. इतने बच्चों की मौत के लिए सरकार उनके परिवारों को मुआवजा दे सकती है, उनके बच्चे नहीं लौटा सकती. कहीं भी सरकार हो, कोई भी सरकार हो, इतनी तो व्यवस्था होनी ही चाहिए कि बच्चों को दी जा रही सुविधाओं का मानकों पर क्रियान्वयन किस प्रकार किया जा रहा है, इसे पुख्ता करे. इस विषय पर राजनीति की आशंका से इंकार नहीं कर सकते, पर सरकारी व्यवस्था में खाने की चीजें आ कहां से रही हैं इतना तो तय होना चाहिए. ऐसे कैसे कि कहीं से खाना बनाने का तेल लिया गया और वह जहरीला निकला? पर सवाल की सुई फिर वहीं अटक जाती है कि कि आम जनता बेचारी करे तो क्या?


ऐसा लग रहा है जैसे समाज की भलाई के लिए बनाई गई राजनीतिक व्यवस्था समाज के लिए ही घातक सिद्ध होने लगी है. यह समाज के लिए हर प्रकार से घातक है. राजनीति हो या प्रशासन, वे आम जनता के विकास के साथ आखिरकार देश के विकास के लिए हैं. अगर ऐसा नहीं होता है तो निश्चित ही इस व्यवस्था का कोई अर्थ नहीं रह जाता.


इसका कोई निश्चित हल भी नहीं निकाल सकते. जनता को इसके लिए जागरुक होना होगा. जनता को इसे राजनीतिक मुद्दा समझकर नजरअंदाज करने वाला नजरिया बदलना होगा. आपकी जिंदगियों की राजनीति आखिर राजनीतिक मुद्दा कैसे हो सकती है? आपके समाज को नुकसान पहुंचाने वाली व्यवस्था आखिर राजनीतिक मुद्दा कैसे हो सकती है? मुद्दा अगर समाज से जुड़ा है, मुद्दा अगर आम जिंदगियों से जुड़ा है, वह राजनीतिक नहीं, सामाजिक मुद्दा है. भारतीय समाज को राजनीति के नाम पर अपना लापरवाह नजरिया छोड़कर एक नया सामाजिक नजरिया अपनाना होगा, तभी व्यवस्था की खामियों को सुधारा जा सकता है.

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