“चुभन सी होती है उन रिश्तों से,
जो बाजार में बेच देते हैं अपना पेट भरने को,
बार-बार तड़पती हूं उस बाजार से निकलने को,
पर रुक जाते हैं कदम यह सोचकरकी बाजार में बेची गई चीज वापस नहीं होती”
हां यह सच है कि बाजार में बेची गई वस्तु वापस नहीं होती पर साथ में यह भी सच है कि हम बाजार में वस्तुओं का मोल लगाते हैं तो क्या किसी की बेटी, बहन अपने परिवार के लिए वस्तु के समान होती है? कौन से माता-पिता होते हैं वो जो अपने पेट की भूख को शांत करने के लिए अपनी बेटी की बाजार में कीमत लगा देते हैं? एक ऐसी खबर जिसे जानने के बाद हैरानी तो होती ही है पर साथ ही कई सवाल खड़े हो जाते हैं कि अधिकांश आदिवासी परिवारों की ऐसी कौन सी मजबूरी रहती है जब वो अपने घर की बेटी को बेच देते हैं.
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एक गैर सरकारी संगठनों की ओर से किए गए अध्ययन के अनुसार अधिकांश आदिवासी परिवार की लड़कियां बिनब्याही मां बन रही हैं. झारखण्ड से महानगरों में जाने वाली लड़कियों की संख्या तो बढ़ ही रही है. मगर इसके साथ-साथ उन बच्चों की संख्या भी बढ़ रही है जिन्हें ये लड़कियां वापस लेकर आ रही हैं और राज्य के सुदूर जंगलों में स्थित अपने गांवों में इन्हें छोड़ कर वापस चली जा रही हैं.
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कहते हैं कि महानगरों की रोशनी ऐसी होती है जो छोटे शहर के लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करती है पर सच तो यह है कि कभी-कभी यह रोशनी लोगों को धोखा भी दे जाती है. आदिवासी लड़कियों का बिनब्याही मां बनने का सिलसिला तब शुरू होता है जब वो काम की तलाश में महानगरों का रुख करती हैं या फिर आदिवासी लड़कियों का परिवार अपनी पेट की भूख को शांत करने के लिए उन्हें किसी दलाल के हाथों बेच देता है और बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि आदिवासी परिवार के लोग जानते ही नहीं हैं कि वो गलती से किसी दलाल के हाथों अपनी बेटी को बेच रहे हैं. ऐसी खबरों से कोई अनजान नहीं है जिसमें दिखाया गया था कि किस तरह से दलाल गरीब परिवारों की पेट की भूख का फायदा उठाकर और उनके परिवार की बेटियों को काम का लालच देकर महानगरों में ले जाकर वेश्या का काम कराते हैं. वैसे तो हमारा समाज इस बात का खोखला दावा करता है कि एक मर्द ही परिवार की भूख शांत करने के लिए पैसे कमाकर ला सकता है तो फिर कहां चले जाते हैं उस परिवार के मर्द जहां बेटियों को बेचकर पेट की भूख शांत की जाती है. क्या हो जाता है उस पुरुष प्रधान समाज को जहां बेटियों की जगह सिर्फ घर की चारदीवारी के अंदर बताई है और वो ही पुरुष प्रधान समाज घर की बेटियों को बाहर जाकर शरीर बेचने के लिए मजबूर कर देता है.
हैरानी और दुख की बात तो यह है कि जब आदिवासी परिवार की लड़कियां अपने आदिवासी इलाकों में वापस आती हैं तो पेट में बच्चा लिए और शरीर में हजारों बीमारियां लेकर. जब वो महानगरों से अपने इलाके में वापस आती हैं तो उनमें गंभीर किस्म के यौन संक्रमण मिलते हैं. यदि इस बात पर यकीन कर लिया जाए कि आदिवासी इलाकों की स्थिति ऐसी है कि उन्हें काम की तलाश में महानगरों की ओर पलायन करना पड़ता है तो फिर क्यों सरकार ने आदिवासी इलाकों की तरफ से अपनी आंखें मूंद रखी है. क्या सरकार को इस बात का दायित्व नहीं उठाना चाहिए कि किसी भी आदिवासी परिवार को अपनी बेटी को बेचना ना पड़े.
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