शारीरिक शोषण की बात जब भी आती है महिलाएं केंद्र में होती हैं. पर हकीकत यह है प्रतिस्पर्धा की दौड़ में औद्योगिक जगत में आगे बढ़ने-बढ़ाने की बढ़ रही राजनीति बड़े स्तर पर पुरुषों का शारीरिक शोषण भी करती है. यह और बात है कि हमेशा से अबला नारी ही दिखती आई है तो पुरुषों की दशा अक्सर बहस का मुद्दा नहीं बन पाती.
कार्यक्षेत्रों और अन्य व्यवसायिक संस्थानों में महिलाओं के साथ होने वाला शारीरिक शोषण आज के समय की एक दुखद और कटु हकीकत है. कॅरियर को उंचाई पर ले जाने का लालच या फिर नौकरी छिन जाने का डर, महिलाओं के साथ होने वाली ऐसी निंदनीय वारदातों का कारण बनता है. हालंकि कुछ महिलाएं अपनी इच्छा से भी संबंध बनाने के लिए राजी हो जाती हैं पर उन्हें पीड़िता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. ऐसी महिलाओं के कारण हम उन शोषित महिलाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकते जो विवश होकर पुरुष के समक्ष आत्मसमर्पण कर देती हैं.
पर यह भी आज की एक बड़ी हकीकत है कि अब पुरुषों के शारीरिक उत्पीड़न से जुड़े मामले भी प्रमुखता से सामने आने लगे हैं. कुछ समय पहले आई फिल्म इनकार ने इस मुद्दे को अच्छी तरह दिखाया है. बदलते परिप्रेक्ष्य में पुरुष भी महिलाओं के ही समान उच्च पदाधिकारियों के द्वारा शोषित हो रहे हैं. पुरुष के उत्पीड़न की वजह कार्यक्षेत्रों में महिलाओं का दबदबा ही नहीं बल्कि अप्राकृतिक यौन संबंध भी है.
जहां एक ओर पुरुष प्रधान मानसिकता और महिलाओं को भोग की वस्तु समझने वाली सोच महिलाओं के शारीरिक उत्पीड़न को बढ़ावा दे रही है वहीं पीड़ित पुरुषों के मामले में नौकरी का डर, सत्ता की ताकत और ओहदे का दुरुपयोग एक बड़ा कारण बन कर उभर रहे हैं.
समान पद पर काम करने वाले पुरुष के अपनी महिला या पुरुष सहकर्मी द्वारा शारीरिक रूप से उत्पीड़ित होने की संभावना ना के बराबर होती है. इसीलिए पीड़ित पुरुषों से जुड़े अधिकांश मामलों में यहीं देखा गया है कि निम्न पदों पर कार्य करने वाले या मानसिक रूप से कमजोर पुरुष ही जल्दी यौन उत्पीड़न का शिकार बनते हैं. वहीं दूसरी ओर एक ही ओहदे पर कार्यरत पुरुष सहकर्मी द्वारा महिला का शोषण अपेक्षाकृत अधिक संभावित रहता है.
हमारे देश में महिलाओं के साथ होने वाले दुराचार को ही बलात्कार की श्रेणी में रखा जाता है. यहीं वजह है कि शारीरिक उत्पीड़न के विरुद्ध बनाए गए लगभग सभी कानून महिलाओं पर ही केंद्रित हैं. जबकि समस्या का दूसरा पहलू ज्यादा व्यापक और चिंतनीय है. संकुचित पारिवारिक और सामाजिक मानसिकता के कारण पुरुष कभी भी अपने साथ होते शोषण को बयां नहीं कर पाते. क्योंकि वह जानते हैं कि पुरुषों की इस हकीकत को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा. निश्चित तौर पर यह उन्हें मानसिक तौर पर और अधिक प्रताड़ित करेगा. ना तो उन्हें किसी प्रकार का शारीरिक संरक्षण प्राप्त है और ना ही समाज में उनकी स्थिति को समझने वाला कोई है इसीलिए वह बिना कुछ कहे सब कुछ सहन करते हैं.
वर्तमान हालातों को देखते हुए यह अत्यंत आवश्यक है कि महिला और पुरुष दोनों को ही यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए कानून बनाया जाए. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि दोनों के लिए अलग-अलग कानून बनें या फिर एक ही कानून में महिला और पुरुष के लिए स्थान सुनिश्चित किया जाए. यूं तो पश्चिमी देशों की तर्ज पर भारत में जेंडर न्यूट्रल यानि महिला और पुरुष के बीच भेद-भाव के बिना यौन उत्पीड़न कानून बनाए जाने की बहस चल रही है लेकिन इस बहस का अंत होता नजर नहीं आता. पुरुष संगठन बलात्कार के विरुद्ध बनाए जाने वाले कानूनों में महिलाओं को प्रधानता देना सही नहीं समझते वहीं नारीवादी महिलाओं को विशेष संरक्षण की मांग कर रहे हैं. हमारी व्यवस्था और प्रशासन कार्यक्षेत्र में होते ऐसे घिनौने अपराधों को रोकने में पूरी तरह विफल रही है. लेकिन अब इन अपराधों के विरुद्ध क्या कानून बनता है, जिससे महिला और पुरुष दोनों को ही समान संरक्षण मिल सके, इस विषय में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी.
एक बात जिस पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए वो यह कि पीड़ित चाहे महिला हो या पुरुष, दोनों को न्याय और सम्मान मिलना चाहिए. पुरुष भी शारीरिक शोषण का शिकार बनते हैं यह आज के समय की हकीकत है और इसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता.
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