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लाल चौक पर तिरंगा क्यों

पाठक नामा -
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लगभग ऐसा देखने में आय है की जब जब भारतीय जनता पार्टी के वजूद में प्रार्दुभाव आया तभी उसने देश में मौजूद ज्वलंत मुद्दों को हवा देने का कार्य अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए अवश्य किया और इस काम के लिए अगर किसी की जान भी गई तो तो उसे कोई गम नहीं हुआ उलटे उसे अपनी फितरत से अपने लाभ में बदल लिया — फिर चाहे वह कर सेवा हो गोधरा हो या राम मंदिर हो \

जैसा कि इतिहास गवाह है कि भारतीय जनता पार्टी ( तब की भारतीय जन संघ ) के संस्थापक अध्यक्ष डॉ० श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसी कश्मीर मुद्दे पर अपनी जान कुर्बान कर दी थी उनकी मृत्यु संदेहास्पद परिस्थितियों में जेल में रहते हुए २३/६/१९५३ को हुई थी ? यह भी कश्मीर मुद्दे पर एक जिद का परिणाम ही था ? लेकिन उसके बाद उसे आशातीत सफलता भी मिली |

जब १९९६ (१६/५/९६ से १/६/९६ ) में १३ दिन सरकार चलाने के बाद बहुमत साबित करने में असफल होने के बाद( क्योंकि गैर भाजपा दलों ने समर्थन नहीं दिया ) श्री अटल बिहारी बाजपाई जी को गद्दी छोड़नी पड़ी थी उसके बाद अथक प्रयास के बाद जब NDA का गठन हुआ तो १९/३/९८ को फिर से श्री अटल बिहारी बाजपाई जी प्रधान मंत्री बने परन्तु सुश्री जय ललिता के समर्थन वापस लेने और उस समय के सांसद श्री गिरधर गोमांग जो की ओड़िसा के मुख्यमंत्री भी थे के वोट के कारण संसद में हार के कारण पद त्यागना पड़ा था लेकिन कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहते हुए कारगिल में पाकिस्तान से एक युद्ध जरूर लड़ना पड़ा था |

हालाँकि कारगिल का युद्ध मई ९९ से जुलाई ९९ के बीच लड़ा था आपरेशन विजय के नाम से यह एक अजीब युद्ध था जो की एक सिमित क्षेत्र में ही लड़ा गया जिसमे सैकड़ों नव जवानों को शहीद होना पड़ा था या तो वह अमेरिका के दबाव में या चीन के डर के कारण या पाकिस्तान के परमाणु संपन्न होने के कारण क्योंकि इस युद्ध को एक सिमित क्षेत्र में लड़ने का क्या कारण था भाजपा आज तक नहीं बता पाई है युद्ध तो युद्ध होता है उसको किसी सीमा में नहीं बाँधा जा सकता — एक ओर जहाँ १९४७ के कश्मीर युद्ध को नेहरु की विफलता का द्धोतक बता कर अनर्गल प्रचार करती है वहीँ कारगिल युद्ध में १९ से ३५ आयु वर्ग के ५२४ जवान शहीद हुए थे तथा १३६३ जवान घायल हुए थे उसको एक सिमित क्षेत्र में ही सिमित रखने पर कारण कुछ भी रहा हो भारतीय जनता पार्टी ने इस युद्ध को भी अपने फायदे में बदल लिया उन शहीद जवानो के शवो की विशेष रूप से उनके शहरों में बैंड बाजे के साथ शव यात्रायें निकली गई और जम कर प्रचार किया गया और जैसा होना था NDA को बहुमत मिल गया और श्री अटल बिहारी बाजपाई जी १३/१०/९९ को फिर से प्रधान मंत्री बन गए जो अगले चुनाव में बहुमत नहीं मिलने के कारण २२/५/२००४ सत्ता से अलग हो गए | यह सब अपने आप में दर्शाता है की किस प्रकार से लाशों पर राजनीती की जाती है |

इसी प्रकार का प्रयास १९९२ में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष श्री मुरली मनोहर जोशी जी ने भी किया था और २६ जनवरी को कश्मीर के लाल चौक में प्रतीकात्मक रूप में फ़ौज की उपस्थिति में राष्ट्रीय झंडे को लहराया था | उसके बाद कभी भी भाजपा को कश्मीर के लाल चौक में झंडा फहराने का ख्याल तक नहीं आया ? झंडा फहराने को प्रत्येक भाजपा कार्यकर्ता यह कहते नहीं थकता की यह अधिकार उन्हें संविधान ने दिया है और सुप्रीम कोर्ट ने भी समर्थन किया है की कोई भी भारतीय भारत भर में कहीं भी राष्ट्रीय ध्वज को फहरा सकता है तो भारतीय जनता पार्टी के सभी कर्ता-धर्ताओं से क्या यह आशा की जा सकती है की वह दिल्ली – उत्तर प्रदेश की सीमा पर गाजी पुर जहाँ गन्दगी का पहाड़ बना है वहाँ पर भी राष्ट्रीय ध्वज को एक बार तो फहराए और बताएं की वहाँ पर राष्ट्रीय झंडे को फहराने पर उसका अपमान होगा या सम्मान होगा चूँकि वह भी तो भारत भूमि का ही एक हिस्सा है ? या फिर जिस प्रकार से वहाँ के मुख्य मंत्री ने बक्षी स्टेडियम में सरकारी समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया तो वहाँ जाने में एतराज क्यों ?

चूँकि इस समय भाजपा में कार्पोरेट संस्कृति पनप चुकी है जैसे की उसके अध्यक्ष ही एक जाने माने कार्पोरेटर हैं तो पार्टी में उसकी झलक आनी स्वाभाविक ही है \ एक कारण यह भी हो सकता है की इस समय भाजपा अपने सहयोगियों में भी अलग-थलग पड गई एक तो मानसून सत्र को लगातार २२ दिन तक नहीं चलने देने के कारण भाजपा की किरकिरी पहले भी बहुत हो चुकी है दुसरे कर्णाटक में मुहं की खाने के बाद उसके पास कोई मुद्दा ही नहीं बचा है — हिंदुत्व और राम मंदिर का मुद्दा तो गौण हो चुका है और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वह बैक फुट पर है कर्णाटक के कारण ही इस लिए जन भावना को भड़काने को राष्ट्रीयता ही एकमात्र सबल मुद्दा बचा है —

एक बात और भी आश्चर्यजनक है की भाजपा शासित किसी भी प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभी तक इस विषय में अपना मुहं तक नहीं खोला है चाहे वह फायर ब्रांड नेता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हो या बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी हो या मध्य प्रदेश के शिव राज हो या छात्तिसगड़ के रमण सिंह हो सभी ने मौन धारण किया हुआ है – क्या यह किसी डर का धोतक है या रणनीति है चूँकि किसी न किसी रुपमे इन सब पर भी भर्ष्टाचार के आरोप लग चुके है और भाजपा कर्णाटक के नाटक के कारण पेशोपेस में हैं दूसरी ओर NDA के सहयोगियों ने इस मामले में अनिच्छा ही जाहिर की है — सत्ता में रहेते हुए या १९९२ से लेकर आज तक इससे पहले लाल चौक पर कभी भी झंडा फहराने की याद भाजपा को क्योंकर नहीं आई क्या भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इसका जवाब जनता को देना उचित समझेगा ?

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