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भावुकता क्या है ? संवैधानिक सत्ता संघर्ष के आंसू ?

पाठक नामा -
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रहिमन अंसुवा नयन ढरि हीया दुःख प्रकट करि देय ।
जाय निकासे गेह ते क्यों भेद कही देय ।।

यूँ तो यह दोहा कवी रहीम ने रामायण के सन्दर्भ में कहा है , जब विभिक्षण ने रावण को यह कहा की भाई आप सीता जी राम चंद्र जी को वापस कर दो । उस समय अधर्मी और दंभी रावण ने अपनेसगे भाई विभिक्षण को भरे दरबार में लात मार् कर लंका से ही निर्वासित कर दिया था ?

लेकिन हम यहाँ बात यह कर रहे है कि अभी दो दिन पहले राजधानी दिल्ली में हुए एक विशाल सम्मलेन की जिसमे उच्चतम न्यायलय और उच्च न्यायालयों के न्यायधीश और प्रदेशों के मुख्य मंत्रियों ने भाग लिया था ? जिसमे उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायधीश जस्टिस ठाकुर जब देश में हो रही गति विधि पर जब न्याय व्यवस्था पर भयावह दुर्दशा जनक स्थिति पर विस्तृत आंकड़े प्रस्तुत कर रहे थे तो वह बेहद भावुक हो गए और इतने भावुक हुए की कि उनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा ही निकल आई ? जो शायद उनकी आत्मा की गहराई से निकली थी ? जिस पर उन्होंने स्वीकार भी किया कि वह एक भावुक व्यक्ति है लेकिन आने वाले अगले मुख्य न्यायधीश इतने भावुक न हो ?

जस्टिस ठाकुर के आंसू यो ही नहीं निकल आये थे संभवत यह आंसू उनकी विधायिका और कार्यपालिका यानि सरकार की अधिनायक वादी परवर्ती और न्यायपालिका की कमज़बूरी के आंसू थे ? जिसकी पटकथा वर्तमान के सत्ता सँभालते ही आरम्भ हो गई थी ?

संसद में १२१ वें संविधान संशोधन विधेयक पारित होने के साथ राष्ट्रीय न्यायायिक नियुक्ति आयोग (नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन-एनजेएसी) गठन की प्रक्रिया , संवैधानिक प्रक्रिया के तहत अब एनजेएसी के गठन के लिए उक्त विधेयक को देश के आधे राज्यों की विधानसभाओं से मंजूरी मिलना आवश्यक है और राष्ट्रपति का हस्ताक्षर होना है।जब यह विधेयक राज्यसभा में पारित हुआ तो सदन में मौजूद १७९ सांसदों ने विधेयक के समर्थन में मतदान किया जबकि प्रख्यात कानूनविद राम जेठमलानी अनुपस्थित हो गए।

तीन स्तंभों के बीच छिड़ी सर्वोच्चता की होड़
विधेयक के पारित होते ही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में विधि और न्यायमंत्री रहे कपिल सिब्बल और प्रख्यात न्यायविद फाली नरीमन ने इस विधेयक को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने का ऐलान कर दिया। सरकार को कानूनविदों ने पहले ही अदालती चुनौती की चेतावनी दी थी, सो कानून एवं न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने राज्यसभा में ताल ठोंक कर कहा कि कानूनी चुनौतियों के भय से संसद कानून बनाने के अपने संविधान प्रदत्त अधिकार को त्याग नहीं सकती। कपिल सिब्बल और फाली नरीमन की चुनौती के अलावा राम जेठमलानी का राज्यसभा के मत विभाजन में हिस्सा न लेना भी कुछ संकेत देता है। संसद में विधेयक पेश होने के पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आर. एम. लोढा का महत्वपूर्ण बयान आया जिसमें उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्तियों की वर्तमान कोलेजियम प्रणाली को बदनाम किए जाने पर नाराजगी जाहिर की।

जम्हूरियत सिर गिनने का खेल भर रह गई है

संवैधानिक अपेक्षा तो यही थी कि ‘एनजेएसी’ पर संसद में समग्र बहस होती। लोकतंत्र में अपेक्षित था कि इस बहस को देख कर जनमानस अपना मंतव्य प्रकट करता। लकवाग्रस्त लोकतंत्र में विधायिकाओं का संचालन भी ऐसी जटिल नियमावलियों से किया जाता है जिसमें जम्हूरियत अक्ल की तराजू पर तौले जाने की बजाय सिर गिनने का खेल भर रह जाती है। इसलिए संसद में एनजेएसी पर बहस भी हुई तो अगड़ा-पिछड़ा-अल्पसंख्यक आरक्षण की बांग के सिवा कुछ समृद्ध विमर्श उठ ही नहीं पाया। हिंदुस्तान समेत तमाम लोकतांत्रिक प्रणालियों में संवैधानिक संस्थाओं में सर्वोच्चता के टकराव का इतिहास रहा है। हिंदुस्तान में भी दशक-दर-दशक कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन परिवर्तित होता रहा है। संवैधानिक लोकतंत्र में शक्ति का त्रिस्तंभीय विभाजन अठारहवीं सदी में हुआ। इस विभाजन की अवधारणा सर्वप्रथम फ्रेंच दार्शनिक मोंटेस्क्यू ने पेश की। मोंटेस्क्यू का मत था कि न्यायपालिका की स्वायत्तता संसदीय बहुमत के तानाशाही बर्ताव पर लगाम का काम करेगी। भारतीय संविधान सभा ने भी इसी दर्शन को मान्य कर न्यायपालिका को राजनीतिक, सामाजिक और नागरिक समता का संरक्षक माना। इसीलिए संविधान सभा ने सर्वोच्च न्यायालय एवं विविध उच्च न्यायालयों को विधायिका द्वारा पारित कानूनों के न्यायायिक समीक्षा का अधिकार दिया।

संवैधानिक स्तंभों में नहीं शक्ति का समुचित संतुलन

इतिहास गवाह है कि दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में संवैधानिक स्तंभों के बीच शक्ति विभाजन का समुचित संतुलन नहीं। स्वाभाविक तौर पर सत्तारूढ़ दल अपनी पसंद के न्यायाधीश नियुक्त करता है और नियुक्त व्यक्ति अपने नियोक्ता की रुचियों के प्रति सहानुभूति रखता है। भारत की संविधान सभा में भी न्यायायिक नियुक्तियों के संदर्भ में इस तरह के भी सुझाव आए थे। संविधान सभा के सदस्य शिब्बन लाल सक्सेना ने प्रस्तावित किया था कि न्यायायिक नियुक्तियों को संसद के दोनों सदनों के दो-तिहाई बहुमत से पुष्ट कराया जाना चाहिए। जबकि दूसरे सदस्य बी. पोकर साहिब का सुझाव था कि सर्वोच्च न्यायालय का जज प्रधान न्यायधीश की सहमति से ही नियुक्त होना चाहिए। संविधान सभा ने इन दोनों प्रस्तावों को खारिज कर दिया। संविधान सभा का अभिमत था कि न्यायपालिका की नियुक्तियों की प्रक्रिया में विधायिका को शामिल करना न केवल प्रक्रिया को जटिल बनाना होगा बल्कि इससे न्यायपालिका के प्रति आदर का भाव भी घट जाएगा।

नेहरू सरकार और न्यायाधीशों में भी थे मतभेद

इसी तरह प्रधान न्यायाधीश को नियुक्तियों में वीटो-पॉवर देना अलोकतांत्रिक होगा। संविधान सभा की लेखा समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर ने न्यायालयीन नियुक्तियों में इन दोनों प्रस्तावों के मध्य मार्ग को पेश किया। इसीलिए संविधान का अनुच्छेद १२४ और २१७ सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों की नियुक्तियों में भारत के प्रधान न्यायाधीश/उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश एवं निश्चित प्राधिकारियों की सलाह से राष्ट्रपति को नियोक्ता का अधिकार प्रदान करता है। इन अनुच्छेदों की सुविधानुकूल व्याख्या शक्ति प्रदर्शन का कारण बनती है। १९५० से १९५९ के बीच सर्वोच्च न्यायालय ने टेक्नोक्रेटिक संस्था की तरह काम किया। प्रधान न्यायाधीश ने जिस भी जज का नाम प्रस्तावित किया सरकार ने उसे नियुक्त कर दिया। कुछ नियुक्तियां सरकार ने प्रस्तावित की जिन्हें योग्यता के चलते प्रधान न्यायाधीश ने सहमति दे दी। इसी अवधि में प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू, उनकी सरकार और कुछ न्यायाधीशों के बीच संवैधानिक सोच पर मतभेद भी उभरे। तत्कालीन संसद ने यह धारणा विकसित की कि वह न्यायपालिका के न्यायायिक पुनर्विचार को नियंत्रित करने की संवैधानिक शक्ति से युक्त है। पं. नेहरू के निधन के बाद केन्द्र सरकार की साख गिरी तो अपने अधिकारों के संदर्भ में न्यायपालिका की मुखरता बढ़ी।

आपातकाल में इंदिरा के निशाने पर रही न्यायपालिका

१९६७ में गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन करने वाला कोई भी संविधान संशोधन नहीं कर सकती। १९७१ तक सरकार चुप रही। जब बांग्लादेश विजय और ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के बल इंदिरा गांधी संसद में शक्तिमान हुर्इं तो उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के लिए न्यायालयीन बाधाओं को दूर करने की वकालत शुरू कर दी। उनकी सरकार ने संसद को सर्वोच्च साबित करने के लिए कई संविधान संशोधन किए। केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की १३ सदस्यीय खंडपीठ ने गोलकनाथ मामले के आदेश को पलट दिया। हालांकि खंडपीठ ने ७-६ से यह जरूर माना कि संसद के पास संविधान के बुनियादी ढांचे में संशोधन का अधिकार नहीं। अब इंदिरा सरकार ने न्यायपालिका को सबक सिखाना तय किया जिसके तहत २५ अप्रैल १९७३ को सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की वरिष्ठता को लांघ कर ए. एन. रे को प्रधान न्यायाधीश नियुक्त कर दिया। रे के तीनों वरिष्ठों ने केशवानंद भारती मामले में सरकार के मंतव्य के खिलाफ फैसला लिखा था। आपातकाल में सरकार ने न्यायपालिका को निशाने पर रख लिया। इंदिरा सरकार ने १९७५ में ६७३ लोगों को, जिसमें अधिकांश राजनीतिक विरोधी थे, को मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (मीसा) के तहत गिरफ्तार किया था। दर्जनों राजनेताओं ने मीसा को हाईकोर्ट में चुनौती दी। जिन हाई कोर्ट के न्यायाधीशों ने सरकार के खिलाफ फैसले दिए उनके तबादले कर दिए गए।

कार्यपालिका-न्यायपालिका में पहला खुला टकराव

मशहूर ‘हैबियस कॉर्पस’ केस में सरकार के पक्ष में ४-१ से फैसला आया। जस्टिस एच. आर. खन्ना ने सरकार की मुखालफत की बहादुरी दिखाई तो उनकी वरिष्ठता को नजरअंदाज कर जस्टिस एमएच बेग को अगला प्रधान न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया। एच आर खन्ना के अलावा विविध उच्च न्यायालयों के १६ न्यायाधीशों के तबादले कर दिए गए। जस्टिस एच. एस सेठ ने अपने तबादले को चुनौती दे दी। यह कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच पहला खुला टकराव था। सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि जस्टिस सेठ के तबादले में सरकार मुख्य न्यायाधीश के परामर्श की प्रक्रिया को पूरी करने में नाकाम रही थी। १९८१ में एस. पी. गुप्ता बनाम भारत सरकार जिसे ‘फस्र्ट जज केस’ के नाम से भी जाना जाता है, में न्यायपालिका ने खुद माना कि न्यायिक नियुक्तियों और तबादलों में मुख्य न्यायाधीश का परामर्श मानना कार्यपालिका के लिए अनिवार्य नहीं। इस फैसले के बाद पूरे दशक भर सरकार मनमर्जी से जज नियुक्त करती रही। रामास्वामी महाभियोग मामला न्यायपालिका की बर्बादी में राजनीतिक सहभागिता का चरमोत्कर्ष था। फिर आया सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रेकॉर्ड बनाम भारत सरकार का मामला। इसे ‘सेकेंड जज’ केस कहा जाता है। इस मामले ने जज नियुक्ति में कोलेजियम को सर्वाधिकार संपन्न बना दिया। कोलेजियम प्रणाली की विफलता २००९ में पी. डी. दिनकरन की नियुक्ति से उजागर हुई। बीते ४ वर्ष से ढांचे में परिवर्तन की दरकार है। देखना है इस संघर्ष में कौन सफल होता है? कार्यपालिका या विधायिका? जीते कोई भी, पर क्या लोकतंत्र की जीवंतता बनी रहेगी? असली सवाल न्याय का है, न्यायपालिका का नहीं।

इन तमाम घटनाक्रमों का संकेत साफ है कि एक बार फिर लोकतंत्र के तीनों स्तंभों कार्यपालिका, विधायिका और न्यापालिका के बीच सर्वोच्चता की होड़ छिड़ गई है। इसकी अंतिम परिणति क्या होगी, यह तो समय ही बताएगा। इतना निश्चित है कि सर्वोच्चता की यह लड़ाई कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच है जिसमें विधायिका सिर्फ रंगभूमि है

लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय ने संसद के द्वारा पारित न्यायिक नियुक्ति आयोग को ही अयोग्य ठहरा दिया है तो कोहराम तो मचना ही है । क्योंकि सरकार के न्यायिक नियुक्ति आयोग को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध ठहरादिया है और सरकार से कहा है कि वह जजों के नियुक्ति के लिए एक सुझाव सुप्रीम कोर्ट को दे ? लेकिन सरकार ने अपने अटॉर्नी जनरल श्री मुकुल रोहतगी के द्वारा 19 11 2015 को यह जवाब दिया की सरकार कोई सुझाव नहीं देगी कोर्ट को स्वयं ही अपने आदेश के द्वारा रूल्स तय कर देने चाहिए?
On 19 November 2015 the Attorney General Mukul Rohatgi informed the Supreme Court that the central government will not prepare a draft memorandum for judicial appointments contrary to committed earlier and suggested the same to be done through a judgement.

इसलिये यह टकराव कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है जब सरकार जो करना चाहती है कर नहीं पाती उधर सर्वोच्च न्यायालय सरकार के कानून को अवैध बता चुकी है ? अब यह बर्चस्व की लड़ाई हो गई गई क्योंकि जहाँ पूर्ण बहुमत की सरकार अपने आपको शक्ति शाली मानती है वहीँ न्यायालय की नजर में सरकार बहुमत की तो है लेकिन जिस संसद में , कानून बनाने की प्रक्रिया में कानून के अपराधी, बलात्कार के आरोपी, आर्थिक अपराधी , हत्या के आरोपी सम्मलित हो वह कानून कैसा होगा , यही एक पेंच है ?

अब सवाल यह उठता है कि मुख्य मंत्री और न्यायधीशों के सम्मेलन में भारत के मुख्य न्यायाधीस जब न्याय व्यवस्था की बदहाल स्थिति और जेलों में बिना मुकद्दमे सड़ रहे लोगों और जजों की कमी की व्यथा को कहने के साथ ही क्यों भावुक क्यों हो गए ? उसका कारण यह है कि मुख्य न्यायधीस ने जजों की नियुक्ति संबंधी एक सूची सरकार को भेजी है जिसको कई महीने हो गए है और सरकार ने वह सूचि ठन्डे बस्ते में दाल दी है ? जिस कारण से जस्टिस ठाकुर के मन का क्षोभ प्रधान मंत्री की उपस्थिति में आंसू बन कर छलक ही गया ?

एस. पी. सिंह। मेरठ

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