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स्वच्छता की ओर एक कदम !!!!!

पाठक नामा -
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स्वच्छता कितनी ज़रूरी है।

स्वच्छता अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मतलब रखती है। उदाहरण के लिए, जब एक माँ अपने छोटे बच्चे को हाथ-मुँह धोने को कहती है तो वह सोच सकता है कि बहते पानी में अपनी उँगलियाँ भिगो लेना और होंठ चिपड़ लेना ही काफी है। लेकिन माँ उससे बेहतर जानती है कि उसके हाथ-मुँह कैसे धोने हैं। वह उसे दोबारा गुसलखाने में ले जाकर, उसके चीखने-चिल्लाने पर भी ढेर सारे पानी और साबुन से रगड़कर उसके हाथ-मुँह धोती है। यह तो वह सच है जो हमें बचपन में ही घुट्टी की तरह पिलाया जाता है लेकिन जब यही बच्चे बड़े होकर समाज का दर्पण बनते है तो इनमे से कुछ के तेवर बदल जाते हैं !? उदहारण स्वरुप जहाँ कही भी मनमाने तरीके से गंदगी फैला देना ? जैसे पान गुटखा खाने वाले सभ्य प्रकार के लोग दुपहिया या चौपहिया वाहन पर चलते समय कहीं भी पीक मार देते हैं या थूक देते हैं । वह गंदगी पीछे आने वाले पर कही भी गिरे उनको इसकी परवाह नहीं होती ?

यह बात सच है कि दुनिया में स्वच्छता का स्तर हर जगह एक जैसा नहीं है और लोग, बचपन से ही इस बारे में अलग-अलग नज़रिया रखते हैं। बीते समयों में, बहुत-से देशों के स्कूलों में साफ-सफाई और हर चीज़ को ढंग से रखने पर ज़ोर दिया जाता था। ऐसे माहौल की वजह से बच्चों को स्वच्छता की अच्छी आदतें पैदा करने में मदद मिली। लेकिन आज कुछ स्कूलों के मैदान, मलबे और कूड़े-करकट से ऐसे भरे पड़े हैं कि देखने पर वे खेलने और कसरत करने की जगह नहीं बल्कि कूड़ेदान लगते हैं। और कक्षाओं के बारे में क्या कहा जा सकता है?

लेकिन जब खुद बड़े लोग ही इसमें अच्छी मिसाल नहीं हैं तो वे समाज को क्या दे सकते हैं क्योंकि वे अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में या काम-धंधे की जगह पर स्वच्छता का ध्यान नहीं रखते। उदाहरण के लिए, बहुत-सी सार्वजनिक जगहों को इस कदर गंदा कर दिया जाता है कि उन्हें देखते ही उबकाई आती है। कुछ कारखाने वातावरण को दूषित करते हैं। देखा जाए तो प्रदूषण फैलाने के ज़िम्मेदार ये कारखाने या व्यापार नहीं बल्कि खुद लोग हैं। हालाँकि संसार-भर में लालच, प्रदूषण की समस्या और उससे होनेवाले बहुत-से नुकसान का मुख्य कारण हो सकता है, मगर इनमें लोगों की अपनी गंदी आदतें भी शामिल हैं। फिर भी कुछ लोग स्वच्छता को निजी मामला समझते हैं और वे नहीं चाहते कि इसमें कोई दखलअंदाज़ी करे। लेकिन क्या यह सचमुच एक निजी मामला है?

स्वच्छ भारत अभियान: तथ्य और आंकड़े

परियोजना की लागत: 1,96,009 करोड़ रुपयेपरियोजना शुरु होने की तारीख: 2 अक्टूबर 2014परियोजना खत्म होने की तारीख: 2 अक्टूबर 2019परियोजना में शामिल मंत्रालय: शहरी विकास मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय, राज्य सरकार, गैर सरकारी संगठन, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम, निगम आदि।परियोजना का लक्ष्य: भारत को पांच सालों में गंदगी से मुक्त देश बनाना। ग्रामीण और शहरी इलाकों में सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय बनाना और पानी की आपूर्ति करना। सड़कें, फुटपाथ और बस्तियां साफ रखना और अपशिष्ट जल को स्वच्छ करना। और स्वास्थ्य ?

आम भारतीय इस विषय में सोंचना ही नहीं चाहता आप किसी भी कामगार या मजदूर को ले लीजिये और देखिये की वह अपने स्वास्थ्य की लिए कितना लापरवाह है ? कल कारखानो में जैसे ही लंच की घंटी बजती है लोग केवल पानी से हाथो को भिगोते हैं और यूँही अपने कपड़ो से पोंछ लेते है और खाना आरम्भ कर देते है ! हाथों में चाहे कितनी भी अदृश्य गंदगी लगी हो? और वाही गंदगी हमारे शारीर में चली जाती है जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित होती है ? और यह सब अनजाने में ही होता है केवल जागरूकता कके कारण ?

भोजन के मामले में स्वच्छता बेहद ज़रूरी है, फिर चाहे हम खाना बाज़ार से खरीदें, रेस्तराँ में खाएँ या अपने किसी दोस्त के यहाँ पर। जो खाना बनाते या परोसते हैं, उनसे उम्मीद की जाती है कि वे स्वच्छता का पूरा ध्यान रखें। चाहे परोसनेवाले के हाथ गंदे हों या हमारे, दोनों ही तरीकों से कई बीमारियाँ लग सकती हैं। अस्पतालों के बारे में क्या कहा जा सकता है, जहाँ हम सबसे ज़्यादा सफाई की उम्मीद करते हैं?। इसलिए हमारा यह उम्मीद करना बिलकुल जायज़ है कि कोई भी इंसान अपनी गंदी आदतों से हमारे स्वास्थ्य को खतरे में न डाले।

स्वच्छता का मतलब सिर्फ खुद को साफ रखना ही नहीं है बल्कि एक शुद्ध और स्वस्थ ज़िंदगी जीना भी है। इसमें दिलो-दिमाग का भी शुद्ध होना शामिल है क्योंकि इनका ताल्लुक हमारे आदर्शों और उपासना से है। आइए देखें कैसे।

स्वास्थ्य और शौचालय ?

चूँकि हमारा देश ही गाँवो में बस्ता है जो की वर्तमान आबादी का 67 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र है और गाँव में निवास करने वालो के पास भले ही अपने खेत खलियान न भी हो चारो और खुला क्षेत्र तो होता ही है दूसरे गाँवों की संरचना किसी भी प्रकार व्यस्थित नहीं होती आदर्श ग्रामीण क्षेत्रों को छोड़ कर ? शौचालयों की जरूरत या निर्माण किसी भी गाँव वासी की प्राथमिकता में नहीं होता और वह इस पर ध्यान ही नहीं देते और अधिकतर ग्रामीण स्त्री पुरुष खुले में ही शौंच के लिए जाते है ?

इतना ही नहीं ग्रामीण परिवेश के तेजी से विकसित शहर भी इसका शिकार होते हैं, दिल्ली जैसे शहर जो देस की राजधानी है उसके NCR क्षेत्र में आपको सुबह सवेरे रेल से यात्रा करने पर यह सब देखने को मिलेगा रेल लाइन पर ही बैठ कर शौंच करते हुए लोग ! ऐसा भी नहीं है की सरकारो ने इस पर कोई कम नहीं किया है मोदी सरकार से पहले मनमोहन सरकार ने भी दस वर्षो में ” ” निर्मल भारत ” योजना। के अंतर्गत शौचालयों के लिए सरकारी अनुदान का प्रावधान किया था जो अब ” स्वच्छ भारत अभियान ” के द्वारा जरी है लेकिन इसकी प्रगति भारत जैसे विकाश शील देश के लिए अभिशाप से कम नहीं । अगर यह भी मान लिया जाय की जब तक अंग्रेज भारत में रहे उन्होंने इस पर कोई कार्य नही किया तो यह बेमानी होगा क्योंकि शौचालय और सफाई का कार्य तो था परंतु वह इतना घिनोना था कि याद करके रूह कांप जाती है । इंसान के मल को इंसान ही सर पर ढोता था ?आज अड़सठ वर्ष के बाद जहां शहरी और अर्ध शहरी क्षेत्रों में सुलभ शौचालयों का प्रचलन बढ़ा है तो भी स्थिति संतोष जनक नहीं कही जा सकती ! क्योंकि सरकारी आंकड़े ही बता रहे कि शहरी क्षेत्रो में 52 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 63 प्रतिशत से अधिक लोगो को शौचालयों की सुविधा नहीं है ?

जिस गति और सामंजस्य से यह अभियान चल रहा है उसके आंकड़े स्वयं सच बताते हैं कि यह 2050 तक पूरा होने की संभावना है ! अब ऐसे में वर्तमान सरकार सहित 6 सरकारों के योगदान की जरूरत होगी ? तब हम स्वच्छता की ओर एक कदम बढ़ा सकेंगें !

SPSingh। मेरठ

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