- 79 Posts
- 132 Comments
लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान सैकड़ों सवाल-जवाब
परिदृश्य पर मंडराते रहे। लेकिन
हिंदी पट्टी की बदहाली का सवाल अनुत्तरित
ही रहा। बुंदेलखंड में किसानों की बदहाली व
आत्महत्या तथा पूर्वांचल से रोजगार की तलाश में
लोगों के अनवरत पलायन से यह उम्मीद बंधी थी कि कम से कम संबंधित राज्यों में इस बार
चुनाव का यह बड़ा मुद्दा बने। लेकिन अब तक
एेसा नहीं हो सका है। किसी को इस बदहाल क्षेत्र
की सुध नहीं आई। मोदी बनाम राहुल से लेकर मुलायम –
आजम के बेतुके बोलों के बीच बदहाल
हिंदी पट्टी का दर्द दबा ही रह गया है। आराप – प्रत्यारोप के बीच किसी को जाति की याद आई
तो किसी को मजहब की। कोई अपने राज्य के लिए
विशेष दर्जे को मुद्दा बनाए रहा, तो कोई किसी खास
व्यक्ति को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक न पहुंचने देने
की भीष्म प्रतिज्ञा पर अडिग नजर आय़ा। लेकिन
किसी को यह ख्याल न आया कि उन मुद्दों को छेड़े, जो रोजगार की तलाश में पलायन करने वाले
लाखों लोगों के अस्तित्व से जु़ड़ा हुआ है। चुनाव प्रचार
के दौरान बहुजन समाज
पार्टी की नेत्री मायावती भी पुरानी ढर्रे पर
ही लौटती नजर आई। लेकिन
हिंदी पट्टी की बदहाली से लेकर शिक्षा व स्वास्थ्य तक के क्षेत्र में राज्यों के पिछड़ेपन का सवाल कोई
मुद्दा ही नहीं बन सका। सवाल उठता है
कि क्या हिंदी भाषी राज्यों की जनता जाति व
मजहब की राजनीति से ऊपर उठना ही नहीं चाहती।
या फिर इन सूबों के राजनेता लोगों को इससे उबरने
ही नहीं देना चाहते। क्योंकि 80- 90 के दशक के राममंदिर आंदोलन के दौर से ही हम हिंदी पट्टी के
नेताओं को जाति – मजहब की राजनीति में
ही उलझा देख रहे हैं। जिसने देश के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र
का सबसे ज्यादा नुकसान किया है।
असम लेकर महाराष्ट्र या देश के किन्हीं राज्यों में
यदि पर प्रांतियों पर हमले होते हैं तो हमारे राजनेता कागजी बयान जारी कर अपने कर्तव्य
की इतिश्री कर लेते हैं। लेकिन उन कारणों को खत्म
करने की नहीं सोचते जिससे लोगों को रोजगार के
लिए किसी दूसरे राज्य में पलायन करने की जरूरत
पड़ती है। इतने सालों में दुनिया पोस्टकार्ड से निकल
कर एसएमएस और इंटरनेट तक पहुंच गई, लेकिन इस क्षेत्र के राजनेताओं की सोच ज्यों की त्यों है। वे अपने
कारनामों से बदहाली को मारो गोली… आओ खेलें
चुनावी होली का राग अलापते हुए एक-दूसरे पर कीचड़
उछालने में लगे हुए हैं। पक्ष से लेकर विपक्ष तक के
नेताओं के लिए लोगों की बदहाली कोई मुद्दा नहीं है।
अन्यथा क्या वजह है कि किसी भी स्तर के चुनाव में विकास के बजाय जाति – धर्म ही परिदृश्य पर
हावीहोने लगता है।
उधर नरेन्द्र मोदी का खुला समर्थन कर रहे महाराष्ट्र के
राज ठाकरे स्पष्ट कर चुके हैं कि नरेन्द्र
मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए दिए जा रहे
समर्थन के बावजूद उत्तर भारतीयों के प्रति उनकी पार्टी की नीति यथावत रहेगी। यानी पर
प्रांतियों के प्रति उनका रवैया जस का तस कायम
रहेगा। हिंदी पट्टी के राजनेता क्या इस बात
की गारंटी दे सकते हैं कि लोकसभा चुनाव 2014 के बाद
रोजगार के लिए किसी को राज्यों से बाहर जाने
की जरूरत नहीं पड़ेगी। तो क्या असम से लेकर महाराष्ट्र तक में बदहाल हिंदी पट्टी के लोगों को अपना पेट भरने
के लिए प्रताड़ना व अपमान भविष्य में भी लगातार
झेलना पड़ेगा…।
somansh suryaa
Read Comments