Menu
blogid : 14972 postid : 734590

संजय बारु की किताब से उठे सवाल

yuva lekhak(AGE-16 SAAL)
yuva lekhak(AGE-16 SAAL)
  • 79 Posts
  • 132 Comments

पिछले दिनों दो पुस्तकें बाज़ार में आईं, जिन्होंने
भारतीय राजनीति में भूचाल ला दिया। पहली पुस्तक
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार रहे वरिष्ठ
पत्रकार संजय बारु की है और दूसरी पुस्तक
कोयला मंत्रालय में सचिव रह चुके पीसी पारिख
की है। इन दोनों पुस्तकों में मोटे तौर पर सोनिया गान्धी के लोगों द्वारा चलाई जा रही सरकार
के कामकाज के तौर तरीक़ों पर टिप्पणियां की गईं हैं। पारिख की किताब की चर्चा तो इसलिये हो रही है
कि उन्होंने सोनिया गान्धी की पार्टी की सरकार
द्वारा आवंटित की गई
कोयला खदानों की चर्चा की है। कोयले
की खदानों का आवंटन 21वीं शताब्दी के प्रारम्भ
का सबसे बड़ा घोटाला कहा जा सकता है। इस पर देश के उच्चतम न्यायालय ने केवल आलोचना ही नहीं की,
बल्कि कुछ खदानों के आवंटन को रद्द भी करना पड़ा।
इस घोटाले में फंसे ऊंचे लोग
अभी भी न्यायालयों का चक्कर काट रहे हैं। पारिख
की कथनी का महत्व इस लिये बढ़ जाता है कि वे खदान
आवंटन के इस सारे नाटक के दर्शक मात्र नहीं थे, बल्कि उनके सामने ही इस घोटाले का स्क्रिप्ट
लिखा जा रहा था। पारिख का कहना है
कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस घोटाले के बारे में
जानते ही नहीं थे, बल्कि इसमें परोक्ष रूप से
अपनी मौन स्वीकृति भी दे रहे थे।
लेकिन संजय बारु की पुस्तक, जिसके शीर्षक का हिन्दी अनुवाद, दुर्घटना से
बना प्रधानमंत्री हो सकता है, सोनिया गान्धी, उन
द्वारा मनोनीत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
तथा सोनिया गान्धी की अपनी किचन कैबिनेट,
सभी पर भारी पड़ रही है। बारु के कथनानुसार मनमोहन
सिंह केवल नाम के प्रधानमंत्री हैं। उनके अपने कार्यालय में भी नियुक्तियां सोनिया गान्धी करतीं थीं।
सरकार के महत्वपूर्ण निर्णय
भी सोनिया गान्धी ही लेतीं हैं। संजय बारु इन पूरे
घटनाक्रमों में अन्दर के आदमी हैं, इसलिये उनके
साक्ष्य को सर्वाधिक प्रामाणिक माना जा सकता है।
संजय की किताब आंखिन देखी कहती है, कानों सुनी नहीं। प्रधानमंत्री की बेटी,
जो दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं, का कहना है
कि संजय बारु ने हमारे साथ विश्वासघात किया है और
उन्होंने पुस्तक का लोकार्पण करने का ग़लत समय
चुना है। पुस्तक के लोकार्पण के समय को लेकर प्रश्न
किया जा सकता है, लेकिन पुस्तक में दिये गये तथ्यों पर किन्तु परन्तु नहीं किया जा सकता। वैसे
देखा जाये तो बारु की पुस्तक में ऐसा कोई महत्वपूर्ण
रहस्योद्घाटन नहीं है, जिसके बारे में पहले ही सामान्य
जन में चर्चा न होती हो। आम आदमी पहले ही यह
जानता है कि मनमोहन सिंह सोनिया गान्धी के
हाथों में रबड़ की मोहर मात्र हैं। वास्तविक निर्णय तो सोनिया गान्धी ही लेतीं हैं। बहुमत के शासन पर
आधारित लोकतांत्रिक प्रणाली में इस पर
किसी को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिये। आख़िर
जिस पार्टी की सरकार है, वह पार्टी ही तो सरकार
की रीति नीति तय करेगी। संगठन नीति तय
करता है और सरकार का काम तो उस नीति का कार्यन्वयन करना होता है । देश में
सोनिया गान्धी की पार्टी की सरकार है। उस
पार्टी की वे स्वयं प्रधान हैं और उन का बेटा उसका उप
प्रधान है। तो क़ायदे से सरकार की नीति का निर्णय
मां-बेटा ही तो करेंगे। सरकार की नीति तय करने
का उन्हें लोकतांत्रिक अधिकार है। बहुमत पर आधारित प्रजातंत्र इसी तरीक़े से चलता है। इसलिये
यदि सोनिया गान्धी सरकार के नीतिग़त निर्णय
लेती थीं, तो इस पर आपत्ति करने का बहुत
पुख़्ता आधार नहीं बनता।
परन्तु संजय बारु ने जो असली रहस्योद्घाटन किया है,
वह यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय से सरकारी फ़ायलें सोनिया गान्धी के पास जाती थीं। मीडिया भी संजय
बारु की किताब के उसी हिस्से पर सबसे
ज़्यादा हो हल्ला कर रहा है जिसमें लिखा है
कि सोनिया गान्धी सरकार की नीति सम्बंधी फ़ैसले
लेती थीं। गोपनीय सरकारी फ़ायलें सोनिया गान्धी के
पास जाती थीं, इस पर मीडिया ध्यान नहीं दे रहा। यह अनजाने में भी हो सकता है या फिर किसी बड़े मैनेजमेंट
षड्यंत्र के परिणामस्वरूप भी हो सकता है।
असली चिन्ता का विषय यही है कि भारत
की गोपनीय फ़ाइलें उस व्यक्ति के पास पहुंचती रहीं,
जिसे इन फ़ायलों को छूने का भी अधिकार नहीं था।
कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री पद संभालने से पहले गोपनीयता की शपथ लेता है कि वह सरकारी रहस्य
किसी अनाधिकृत व्यक्ति के आगे प्रकट नहीं करेगा।
इस के बावजूद गोपनीय सरकारी फ़ाइलें
सोनिया गान्धी के पास जाती रहीं। यह केवल इस शपथ
को भंग करना ही नहीं है, यह देश की सुरक्षा और सरकार
की कार्यप्रणाली पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। सोनिया गान्धी चाहे इटली से आई हों, लेकिन अब
उन्हें भारत के लोकतांत्रिक समाज में रहते हुये इतने दशक
हो गये हैं। इतना ही नहीं, वे भारत के प्रमुख राजनैतिक
परिवार से भी जुड़ी हुई हैं। अब तक
उनको इतना तो पता चल ही गया होगा हिन्दुस्तान
की सरकार की फ़ाइलें देखने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। यह सब जानते बूझते हुये भी, ऐसे कौन से कारण
थे , जिनके चलते सोनिया गान्धी भारत सरकार की ये
गोपनीय फ़ायलों को देखने के लिये
इतनी उतावली थीं ? सबसे बड़ा प्रश्न तो यही है
कि सोनिया गान्धी अपनी पार्टी की सरकार
को नीति सम्बंधी दिशा निर्देश दे सकतीं थीं और ऐसा वे करती भी थीं । लेकिन वे गोपनीय
सरकारी फ़ायलों किस उद्देश्य को ध्यान में रखकर अपने
पास मंगवातीं थीं ? दरअसल, संजय बारु की पुस्तक मेंं से निकला सबसे
टेढ़ा प्रश्न यही है, जिसका केवल उत्तर
ही नहीं खोजा जाना चाहिये, बल्कि इसकी उच्च
स्तरीय जाँच भी करवाई जानी चाहिये। यह
पता लगाना जरुरी है कि आख़िर वे कौन लोग थे जो इन
फ़ायलों को देखने में अतिरिक्त रुचि दिखा रहे थे ? अब जब सोनिया गान्धी की पार्टी की सरकार अपने
अन्तिम श्वासों पर है तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
पद त्याग करने से पहले, देश की एक ही सेवा कर सकते हैं
कि वे उन फ़ाइलों की पूरी सूची देश के सामने
रखें ,जो सोनिया गान्धी के घर भेजी जाती रही हैं। यह
विश्लेषण करना और भी जरुरी है कि इन फ़ाइलों में सुरक्षा मंत्रालय या विदेश मंत्रालय से सम्बंधित फ़ाइलें
तो नहीं हैं ? संजय बारु की किताब के इस हिस्से पर
गहरी बहस की जरुरत है। परन्तु दुर्भाग्य से
मीडिया किताब के अप्रासंगिक विषयों पर
तो सारी उर्जा ख़त्म कर रहा है, लेकिन उस के
असली हिस्से की अवहेलना कर रहा है । यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है
कि अमेरिका समेत दूसरी विदेशी शक्तियां, जिनमें
चीन भी शामिल है, भारत की आन्तरिक
नीतियों की टोह लेती रहतीं हैं। देश के गुप्त
रहस्यों को इस प्रकार की ताक़तों के हाथों से बचाने के
लिये ही गोपनीयता अधिनियम बना हुआ है। सरकारी रहस्यों को सुरक्षित रखने के लिये बनाई गई
इस दीवार में यदि प्रधानमंत्री कार्यालय में ही सुराख शुरु
हो जाये तो मान लेना चाहिये कि देश के लिये ख़तरे
की घंटी बजने लगी है। जिस समय
सोनिया गान्धी की ओर से प्रधानमंत्री को गोपनीय
फ़ाइलें भेजने के लिये कहा जाता था, उसी समय प्रधानमंत्री को चाहिये था कि वे इन प्रयासों का देश
की जनता के सामने पर्दाफ़ाश करते, ताकि देश की आम
जनता इस नये घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुये ,
सोनिया गान्धी और उनकी पार्टी के बारे में कोई
निर्णय ले सकती। परन्तु यह दुख का विषय है
कि मनमोहन सिंह ने अपनी कुर्सी बचाने के लिये, सोनिया गान्धी की पार्टी की इन संदेहास्पद
हरकतों पर मौन रहना ही बेहतर समझा। इन
परिस्थितियों में यह प्रश्न पैदा होता है
कि विश्वासघात संजय बारु ने किया या फिर
सोनिया गान्धी और मनमोहन सिंह ने मिल कर उन
लोगों के साथ किया जिन्होंने उन पर विश्वास कर देश की सत्ता उन के हाथों सौंप दी थी ? यक़ीनन
सोनिया गान्धी और मनमोहन सिंह दोनों ही संजय
बारु के इन आरोपों का खंडन करेंगे। परन्तु यह गंभीर
मामला केवल खंडन कर देने मात्र से समाप्त
नहीं हो जाना चाहिये। यह स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जांच
की मांग करता है।
somansh surya

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply