Menu
blogid : 14972 postid : 608262

“नव परिवर्तनों के दौर में हिन्दी ब्लॉगिंग”(“Contest”)

yuva lekhak(AGE-16 SAAL)
yuva lekhak(AGE-16 SAAL)
  • 79 Posts
  • 132 Comments

हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए अब बहुत चिंतित होने
की जरुरत नहीं है। हिंदी अपने दायरे से बाहर निकल
विश्वजगत को अचंभित और प्रभावित कर रही है। एक
भाषा के तौर पर वह अपने सभी प्रतिद्वंदियों को पीछे
छोड़ दी है। विगत दो दशकों में जिस तेजी से
हिंदी का अंतर्राष्ट्रीयविकास हुआ है और उसके प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है यह
उसकी लोकप्रियता को रेखांकित करता है। शायद
ही विश्व में किसी भाषा का हिंदी के तर्ज पर इस तरह
फैलाव हुआ हो। इसकी क्या वजहें हैं यह विमर्ष और षोध
का विशय है। लेकिन हिंदी को नया मुकाम देने का कार्य
कर रही संस्थाएं, सरकारी मशीनरी और छोटे-बड़े समूह उसका श्रेय लेने की कोशिश जरुर कर रही हैं। यह गलत
भी नहीं है। यूजर्स की लिहाज से देखें तो 1952 में
हिंदी विश्व में पांचवे स्थान पर थी। 1980 के दशक में वह
चीनी और अंग्रेजी भाषा के बाद तीसरे स्थान पर आ गयी।
आज उसकी लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोल
रही है और वह चीनी भाषा के बाद दूसरे स्थान पर आ गयी है। भविष्य भी हिंदी का ही है। कल वह
चीनी भाषा को पछाड़ नंबर एक होने का गौरव हासिल कर ले
तो आष्चर्य की बात नहीं होगी। निश्चित ही इसके
लिए वे सभी संस्थाएं और समूह साधुवाद के पात्र हैं
जो हिंदी के विकास व प्रचार-प्रसार के लिए काम कर रहे
हैं। लेकिन इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि बाजार ने
हिंदी की स्वीकार्यता को नर्इ उंचार्इ दी है और विश्व
को आकर्षित किया है। यह सार्वभौमिक सच है
कि जो भाषाएं रोजगार और संवादपरक नहीं बन
पाती उनका अस्तित्व खत्म हो जाता है।
मैकिसको की पुरातन भाषाओं में से एक अयापनेको, उक्रेन की कैरेम, ओकलाहामा की विचिता,
इंडोनेशिया की लेंगिलू भाषा आज अगर अपने असितत्व के
संकट से गुजर रही हैं तो उसके लिए उनका रोजगारपरक और
संवादविहिन होना मुख्य कारण हैं। एक अनुमान के
मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन 6900 मातृभाषाएं
बोली जाती हैं। इनमें से तकरीबन 2500 मातृभाषाएं अपने असितत्व के संकट से गुजर रही हैं। इनमें से कुछ को ‘भाषाओं
की चिंताजनक सिथति वाली भाषाओं की सूची में रख
दिया गया है। संयुक्त राश्ट्र संघ द्वारा कराए गए एक
तुलनात्मक अध्ययन से खुलासा हुआ है कि 2001 में
विलुप्त प्राय मातृभाषाओं की संख्या जो 900 के आसपास
थी वह आज तीन गुने से भी पार जा पहुंची हैं। जानना जरुरी है कि दुनिया भर में तकरीबन दो सैकड़ा ऐसी मातृभाषाएं हैं
जिनके बोलने वालों की संख्या महज दस-बारह रह गयी है।
यह चिंताजनक सिथति है। दूसरी ओर अगर वैश्विक
भाषा अंग्रेजी के फैलाव की बात करें तो नि:संदेह उसके ढेर
सारे कारण हो सकते हैं। लेकिन वह अपनी शानदार संवाद और
व्यापारिक नजरिए के कारण भी अपना विश्वव्यापी चरित्र गढ़ने में सफल रही है। आज
हिंदी भाषा भी उसी चरित्र को अपनाती दिख रही है।
वह विश्वसंवाद का एक सशक्त भाषा के तौर पर उभर रही है
और विश्व समुदाय उसका स्वागत कर रहा है। कभी भारतीय
ग्रंथों विशेष रुप से संस्कृत भाषा की गंभीरता और
उसकी उपादेयता और संस्कृत कवियों व साहित्कारों की साहितियक रचना का मीमांसा करने
वाला यूरोपिय देष जर्मनी संस्कृत भाषा को लेकर
आत्ममुग्ध हुआ करता था। वेदों, पुराणों और
उपनिषदों को जर्मन भाषा में अनुदित कर साहित्य के
प्रति अपने अनुराग को संदर्भित करता था। आज वह
संस्कृत की तरह हिंदी को भी उतना ही महत्ता देते देखा जा रहा है। जर्मन के लोग हिंदी को एशियार्इ
आबादी के एक बड़े तबके से संपर्क साधने का सबसे दमदार
हथियार मानने लगे हैं। जर्मनी के हार्इडेलबर्ग, लोअर
सेक्सोनी के लाइपजिंग, बर्लिन के हम्बोलडिट और बान
विश्वविधालय के अलावा दुनिया के कर्इ शिक्षण
संस्थाओं में अब हिंदी भाषा पाठयक्रम में शामिल कर ली गर्इ हैं। छात्र समुदाय इस भाषा में रोजगार की व्यापक
संभावनाएं भी तलाशने लगा है। एक आंकडें के मुताबिक
दुनिया भर के 150 विश्वविधालयों और कर्इ छोटे-बड़े
षिक्षण संस्थाओं में रिसर्च स्तर तक अध्ययन-अध्यापन
की पूरी व्यवस्था की गयी है। यूरोप से ही तकरीबन
दो दर्जन पत्र-पत्रिकाएं हिंदी में प्रकाषित होती हैं। सुखद यह है कि पाठकों की संख्या लगातार
बढ़ती जा रही है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक आज विश्व में
आधा अरब लोग हिंदी बोलते है और तकरीबन एक अरब
लोग हिंदी बखूबी समझते हैं। वेब, विज्ञापन, संगीत,
सिनेमा और बाजार ऐसा कोर्इ क्षेत्र नहीं बचा है
जहां हिंदी अपना पांव पसारती न दिख रही हो। वैष्वीकरण के माहौल में अब हिंदी विदेशी कंपनियों के लिए
भी लाभ का एक आकर्षक भाषा व जरिया बन गयी है। वे
अपने उत्पादों को बड़ी आबादी तक पहुंचाने के लिए
हिंदी को अपना अस्त्र-शस्त्र दिखने लगी हैं।
यानी पूरा कारपोरेट कल्चर ही अब हिंदीमय
होता जा रहा है। हिंदी के बढ़ते दायरे से उत्साहित सरकार की संस्थाएं भी जो कभी हिंदी के प्रचार-प्रसार में
खानापूर्ति करती देखी जाती थी वे अब तल्लीनता से
हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और
हिंदी पखवाड़ा मना रही हैं।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply