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आख़िर हम किस प्रदेश के आदमी है

Poetries By Somuwrrittes
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चेहरे पर मास्क है, कंधे पर सामान लदा है और साथ में छोटे-छोटे बच्चे भी हैं. मजदूरों और अप्रवासियों का कारवां निकल पड़ा है, इनकी मंजिल बहुत दूर है. कोई गुजरात से चलकर राजस्थान जाना चाहता है तो कोई दिल्ली से रिक्शा चलाकर बिहार के मोतिहारी जा रहा है. नोएडा और गाजियाबाद में काम करने वाले मजदूर भी उत्तर प्रदेश के गांवों की ओर निकल पड़े हैं. लॉकडाउन की वजह से ना ट्रेनें चल रही हैं और ना ही बसें. पैदल जाने वाले लोगों का कहना है कि यह सभी लोग महानगरों में मजदूरी करते हैं, रोज कमाते हैं और खाते हैं.

 

 

 

लॉकडाउन की वजह से उनके पास अपने घर लौटने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. पंजाब, छत्तीसगढ़, राजस्थान-हर सीमा पर यही हाल है। इस सरकार के पुलिस वाले उस सरकार के पुलिस वालों से जूझ रहे हैं। ट्रक में छुपकर, डंपर में घुसकर, पटरियों के सहारे या पैदल ही अपना जीवन रथ खींचते ये लोग भूख, थकान, हताशा और अनिश्चय के बैनर बन गए हैं। इसी देश में, इस प्रदेश से उस प्रदेश की सीमा पर गिराए जाते भग्न स्वप्नों के विराट अवशेषों की तरह इनके लिए धरती पीली पड़ गई है और आकाश सफेद।

 

 

 

बदन पर सिर्फ व्यवस्था की नीलें हैं।अब वे ‘पर-प्रांतीय’ घबरा गए हैं। किसी तरह घर जाना चाहते हैं। वे जिन चमचमाते शहरों को बनाने गए थे, उन शहरों में उनके लिए आश्वस्ति का कोई कोना नहीं था। वहां उनका घर तो बना नहीं। वहां तो उन्होंने पसीना बहाया था। लोगों ने मोल दिया और छुट्टी पाई। तो, जो भी मोल मिला, उसमें अपने हृदय की स्मृति बांधकर उन्होंने सदैव अपने घर को भेज दिया था। अब जब उन्हें लग रहा है कि जीवन अनिश्चित है, सिर्फ महामारी का संताप तय है, तो घर के अतिरिक्त और क्या आश्वस्ति हो सकती है? बकौल विनोद कुमार शुक्ल, घर तो जाने से ज्यादा लौटने के लिए होता है, और जब जीवन का भय हो तो घर की आश्वस्ति ही सब हो जाती है।

 

 

 

 

महामारियां मानवीय समुदाय के भीतर जितने भी अंतर्विरोध होते हैं, उन्हें उघाड़कर रख देती हैं। जब सरकारी हुक्म से शहर के फाटक बंद होते हैं, तो लोग ऐसा आचरण करने लगते हैं, जैसे व्यक्तिगत भावनाएं होती ही नहीं। अर्जियां, मेहरबानी, खास इंतजाम, मित्रता, प्रेम आदि शब्द दोहराए गए और बेमानी हो जाते हैं, क्योंकि तब उन्हें सिर्फ कतरन की तरह संवादों में चिपकाया जाने लगता है। बीच-बीच में झूठी कल्पनाओं से महामारी के अंत की कल्पित भविष्यवाणियों से हृदय को सहलाया जाताकोरोना कोई सरकारी आपदा नहीं है, लेकिन इसने राज और समाज की सच्चाई खोलकर रख दी है।

 

 

 

 

जिन गांवों को ये लौट रहे हैं, वे सालों-साल बाद भी इन्हें सहेजने लायक तो बनाए नहीं जा सके और जिन शहरों में ये गए थे उसके दिल में इनकी कोई जगह नहीं। क्यों कुछ इलाके दसियों साल बाद भी सिर्फ भूख और मजबूर कामगार ही सप्लाई करते हैं? विडंबना है कि हमारे कुछ ज्ञानीजन अब फरमा रहे हैं कि ये अपनी जिजीविषा से गांवों की भी तकदीर बदल देंगे। गोया गांवों की अर्थव्यवस्था में अचानक स्थानीय समाज और राजनीति का एक चमत्कारिक डंडा घूमेगा और वे रातों-रात खेतों में ‘साथी हाथ बढ़ाना’ गाते दिखाई देने लगेंगे। सब लहलहाने लगेगा, सरकारी इश्तहार उनकी मुस्कराहटों से भर जाएंगे। हां, एकदम ठीक कहा आपने, यही लोग हैं जो असली भारत बनाते हैं। उनकी आत्मशक्ति पर हमारा भरोसा टिका है।

 

 

 

 

इनका तो पीढ़ियों से जिम्मा है चीजों को बनाने का। यानी आपकी राय में सारा का सारा जिम्मा सिर्फ इन्हीं का है। फिर आपका जिम्मा क्या है? सिर्फ उनके शहर लौटने की नई तारीख तय करना?आप ऐसा सोचते हैं और खूब सोचते हैं। कोरोना काल में अल्बैर कामू के ‘प्लेग’ की बात याद करें-‘प्लेग का कीटाणु न मरता है न हमेशा के लिए लुप्त होता है। वह सालों तक फरनीचर और कपड़ों की अलमारियों में छिपकर सोया रह सकता है, वह शयन गृहों, तहखानों, संदूकों और किताबों की आलमरियों में छिपकर उपयुक्त अवसर की ताक में रहता है। और शायद फिर वह दिन आएगा, जब इंसानों का नाश करने और उन्हें ज्ञान देने के लिए वह फिर चूहों को उत्तेजित करके किसी सुखी शहर में मरने के लिए भेजेगा।’ क्या हम अपने जवाबों के लिए तब तक इंतजार करेंगे। आखिर हम किस देश-प्रदेश के आदमी हैं? है।

 

 

 

 

नोट : इन विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं।

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