शब्दस्वर
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प्रतिबिम्ब अपना और जीवन
आईना धुंधला रहा
देखना प्रतिदिन इसे
वश मेँ नहीँ मुंह मोड़ना ।
घाव लगना और भरना
जिन्दगी का सिलसिला है ।
चल रहा जब यह निरन्तर
व्यर्थ श्रम है रोक सकना ।
चाहतोँ के फूल प्रतिदिन
धूल मेँ सनते रहे ।
नित नये अंकुर निकलकर
चाहतोँ के फूल खिलना
जिन्दगी का सिलसिला है ।
देखना ही जिन्दगी है
मृत्यु है बिल्कुल अंधेरा
साथ जीवन के चलाचल
देखता रह आईना ।
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– सुरेन्द्रपाल वैद्य
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