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भारत का भाग्य (कविता) – – – – – –

शब्दस्वर
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देश की सत्ता जिसको सौंपी ,
वे बन गये लुटेरे हैं ।
मुगलों और अंग्रेजोँ के ही ,
ये भाई मौसेरे हैं ।।
लूट लूट कर देश का पैसा ,
बैंक विदेशी भरते जाते ।
देश की जनता भूखों मरती ,
बच्चे आँसू पी सो जाते ।।
शहीदोँ की भी रुह काँपती ,
होगी ऊपर आसमान पर ।
इसी लिए हमने चूमा था ,
फाँसी के फदों को हँस कर ।।
राजनीति की गंदी कीचड़ ,
में उलझे सब देश के नेता ।
आतंकी वारोँ से प्रतिदिन ,
आहत होती भारत माता ।।
फिर भी एक किरण आशा की ,
अभी देश मेँ बाकी है ।
बुझी राख के अन्दर शोला ,
सुलग रहा अविनाशी है ।।
जाति पंथ भाषा की जिस दिन
ढह जाएंगी दीवारें ।
समरसता की रंगोली से ,
चित्रित होंगे आँगन द्वारे ।।
भ्रातृ भाव में ही निहित है ,
भारत का उत्कर्ष महान ।
राष्ट्र शक्ति का दिव्य पुंञ्ज है ,
भारत जग का गुरु महान ।।
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _

– सुरेन्द्रपाल वैद्य

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